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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ७३९ प्रश्न-आहार श्रादि देनेसे सम्यग्दर्शन आदिकी वृद्धि कैसे होती है ? सरस आहार देनेसे मुनिके शरीर में शक्ति, आरोग्यता आदि होती है। और इससे मुनि ज्ञानाभ्यास उपवास तीर्थयात्रा धर्मोपदेश आदिमें सुखपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं। इसी प्रकार पुस्तक पीछी आदिके देनेसे भी परोपकार होता है। विज्ञानी योग्य दाता योग्य पात्रके लिये योग्य वस्तुका दान दे । कहा भी है कि "धर्म,स्वामि सेवा और पुत्रोत्पत्तिमें स्वयं व्यापार करना चाहिए दूसरोंके द्वारा नहीं।" जो अन्न विवर्ण विरस और घुना हुआ हो, स्वरूपचलित हो, झिरा हुआ हो, रोगोत्पादक हो, जूंठा हो, नीच जनोंके लायक हो, अन्यके उद्देश्यसे बनाया गया हो, निन्द्य हो, दुर्जनोंके द्वारा छुआ गया हो, देवभक्ष्य आदिके लिए संकल्पित हो, दूसरे गांवसे लाया गया हो, मन्त्रसे लाया गया हो, किसीके उपहारके लिए रखा हो, बाजारू बनी हुई मिठाई आदिके रूपमें हो, प्रकृतिविरुद्ध हो, ऋतुविरुद्ध हो, दही घी दूध आदिसे बना हुआ होनेपर बासा हो गया हो, जिसके गन्ध रसादि चलित हो, और भी इसी प्रकारका भ्रष्ट अन्न पात्रोंको नहीं देना चाहिए। दानके फलमें विशेषता। विधिद्रव्यदासपात्र विशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥ विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातृविशेष और पात्रविशेषसे दानके फलमें विशेषता होती है। सुपात्रके लिये खड़े होकर पगगाहना, उच्च आसन देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि ये नव विधि हैं। विधिमें आदर और अनादर करना विधिविशेष है। आदरसे पुण्य और अनादरसे पाप होता है । मद्य, मांस और मधुरहित शुद्ध चावल गेहूँ आदि द्रव्य कहलाते हैं । पात्रके तप, स्वाध्याय आदिकी वृद्धि में हेतुभूत द्रव्य पुण्यका कारण होता है। तथा जो द्रव्य तप आदिकी वृद्धि में कारण नहीं होता वह विशिष्ट पुण्यका भी कारण नहीं होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये दाता होते हैं। पात्रमें असूया न होना, दानमें विषाद न होना तथा दृष्टफलकी अपेक्षा नहीं करना आदि दाताकी विशेषता है। श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलोभता, क्षमा और शक्ति ये दाताके सात गुण हैं । पात्र तीन प्रकारके होते है-उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र । महाव्रतके धारी मुनि उत्तम पात्र हैं। श्रावक मध्यम पात्र हैं। सम्यग्दर्शन सहित लेकिन व्रतरहित जन जघन्य पात्र हैं। सम्यग्दर्शन आदिकी शुद्धि और अशुद्धि पात्रकी विशेषता है । योग्य पात्रके लिये विधिपूर्वक दिया हुआ दान बटबीजकी तरह प्राणियोंको अनेक जन्मों में फल (सुख ) को देता है। ___ पात्र गत थोड़ा भी दान भूमिमें पड़े हुए बटबीजकी तरह विशाल रूपमें फलता है। जिसके आश्रयसे अनेकोंका उपकार होता है। सप्तम अध्याय समाप्त For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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