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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [६६ आस्रवके उनतालीस भेद हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के द्वारा और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच अवतोंके द्वारा साम्परायिक आस्रव होता है। सम्यक्त्व आदि पच्चीस क्रियाओंके द्वारा भी साम्परायिक आस्रव होता है। पञ्चीस क्रियाओंका स्वरूप निम्न प्रकार है १ सम्यक्त्वको बढ़ाने वाली क्रियाको सम्यक्त्व क्रिया कहते है जैसे देवपूजन, गुरूपास्ति, शास्त्र प्रवचन आदि । २ मिथ्यात्वको बढ़ानेवाली क्रिया मिथ्यात्व क्रिया हैं जैसे कुदेवपूजन आदि । ३ शरीरादिके द्वारा गमनागमनादिमें प्रवृत्त होना प्रयोग क्रिया है । ४ संयमीका अविरतिके सम्मुख होना अथवा प्रयत्नपूर्वक उपकरणादिका ग्रहण करना समादान क्रिया है । ५ ईर्यापथ कर्मकी कारणभूत क्रियाको ईर्यापथ क्रिया कहते हैं । ६ दुष्टतापूर्वक कायसे उद्यम करना कायिकी क्रिया है । हिंसाके उपकरण तलवार आदिका ग्रहण करना अधिकरण क्रिया है । ८ जीवोंको दुःख उत्पन्न करने वाली क्रियाको पारितापिकी क्रिया कहते हैं । ९ आयु, इन्द्रिय आदि दश प्राणोंका वियोग करना प्राणातिपातिकी क्रिया है । ११ रागके कारण रमणीयरूप देखनेकी इच्छाका होना दर्शन क्रिया है। १२ कामके वशीभूत होकर सुन्दर कामिनीके स्पर्शनकी इच्छाका होना स्पर्शन क्रिया है। १३ नये नये हिंसादिके कारणोंका जुटाना प्रात्ययिकी क्रिया है। १४ स्त्री, पुरुष और पशुओंके बैठने आदिके स्थानमें मल, मूत्र आदि करना समन्तानुपात क्रिया है। १५ विना देखी और विना शोधी हुई भूमि पर उठना, बैठना आदि अनाभोग क्रिया है । १६ नौकर आदिके करने योग्य क्रियाको स्वयं करना स्वहस्त क्रियाहै । १७ पापको उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति में दूसरेको अनुमति देना निसर्ग क्रिया है। १८ दूसरों द्वारा किये गये गुप्त पापोंको प्रगट कर देना विदारण क्रिया है। १९ चारित्रमोहके उदयसे जिनोक्त आवश्यकादि क्रियाओंके पालन करनेमें असमर्थ होनेके कारण जिनाज्ञासे विपरीत कथन करना आज्ञाव्यापादन क्रिया है। २० प्रमाद अथवा अज्ञानके कारण शास्त्रोक्त क्रियाओंका आदर नहीं करना अनाकांक्षाक्रिया है। २१ प्राणियोंके छेदन, भेदन आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना तथा अन्यको प्रवृत देखकर हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है। २२ परिग्रहकी रक्षाका प्रयत्न करना पारिग्रहिकी क्रिया है। २३ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपमें तथा इनके धारी पुरुषों में कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है। २४ मिथ्यामतोक्त क्रियाओंके पालन करनेवाले की प्रशंसा करना मिथ्यादर्शन क्रिया है। २५ चारित्र मोहके उदयसे त्यागरूप प्रवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है। इन्द्रिय आदि कारण हैं और क्रियाएँ कार्य हैं अतः इन्द्रियोंसे क्रियाओंका भेद स्पष्ट है। आस्रवकी विशेषतामें कारणतीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।। ६ ॥ तीव्रभाव, मन्दभाव, सातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यकी विशेषतासे आस्रवमें विशेषता होती है। बाह्य और अभ्यन्तर कारणोंसे जो उत्कट क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं वह तीव्रभाव है । कषायकी मन्दता होनेसे जो सरल परिणाम होते हैं वह मन्द भाव है। 'इस प्राणीको मारूँगा' इस प्रकार जानकर प्रवृत्त होना ज्ञातभाव है। प्रमाद अथवा For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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