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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६।४-५] छठवाँ अध्याय दे वह पाप है। सद्वेद्य, शुभायु, शुभनाम और शुभ गोत्र पुण्य हैं, असाता वेदनीय अशुभ आयु अशुभ नाम और अशुभ गोत्र पाप हैं । जीवरक्षा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ काययोग है। सत्य, हित, मित, प्रियभाषणादि शुभ वचनयोग है। अर्हन्त आदिकी भक्ति, तपमें रुचि, शास्त्रकी विनय आदि शुभ मनोयोग है । हिंसा, अदत्तादान, मैथुन आदि अशुभ काययोग है। असत्य, अप्रिय, अहित, कर्कश भाषण आदि अशुभ वचनयोग है। वधचिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग है। शुभ परिणामोंमें उत्पन्न योगको शुभ योग और अशुभ परिणामोंसे उत्पन्न योगको अशुभ योग कहते हैं। ऐसा नहीं है कि जिसका हेतु शुभ कर्म हो वह शुभ योग और जिसका हेतु अशुभ कर्म हो वह अशुभ योग कहा जाय । यदि ऐसा माना जाय तो केवलीके भी शुभाशुभ कर्मका बन्ध होना चाहिये क्योंकि केवलीके अशुभ कर्म (असाता वेदनीय) का उदय होनेसे अशुभ योग हो जायगा और अशुभ योग होने सेअशुभ कर्मका बन्ध होना चाहिये । लेकिन केवलीके अशुभ कर्मका बन्ध नहीं होता है । प्रश्न-शुभ योग भी ज्ञानावरणादि कर्मके बन्धका कारण होता है। जैसे किसीने एक उपवास करने वाले व्यक्तिसे कहा कि तुम पढ़ो नहीं,पढ़ना बन्द कर दो। तो यद्यपि कहने वालेने हितकी बात कही फिर भी उसके ज्ञानावरणादिका बन्ध होता है। इसलिये एक अशुभ योग ही मानना ठीक है । शुभ योग है ही नहीं। उत्तर-उक्त प्रकारसे कहनेवालेको अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता है क्योंकि उसके परिणाम विशुद्ध हैं। उसके कहनेका अभिप्राय यह था कि यदि यह उपवास करनेवाला व्यक्ति इस समय विश्राम कर ले तो भविष्यमें अधिक तप कर सकता है। अतः उसके परिणाम शुभ होनेसे अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता है। आप्तमीमांसामें कहा भी है कि-स्व और परमें उत्पन्न होनेवाले सुख या दुःख यदि विशुद्धिपूर्वक हैं तो पुण्यास्रव होगा यदि संक्लेश पूर्वक हैं तो पापास्रव होगा। यही व्यवस्था पुण्य-पापास्रवकी सयुक्तिया है । सकपायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥ ४॥ जो आत्माको कसे अर्थात् दुःख दे वह कषाय । अथवा कषाय चेपको कहते हैं जैसे बहेड़ा या आँवलेका कसैली चैप वस्त्रके कसले रंगसे रंग देता है । कषाय सहित जीवोंके साम्परायिक और कषाय रहित जीवोंके ईर्यापथ आस्रव होता है। संसारके कारणभूत आस्रव को साम्परायिक आस्रव कहते हैं ।। स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्रवको ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। कषायसहित जीवोंके अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे दशमें गुणस्थान तक साम्परायिक आस्रव होता है। और ग्यारहवें गुणस्थानसे तेरहवें गुणस्थान तक ईर्यापथ श्रास्रव होता है। ईआपथ आस्रव संसारका कारण नहीं होता है क्योंकि उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में कषायका अभाव होनेसे योगके द्वारा आये हुये कर्मों का स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता है और आये हुये कर्मोंकी सूखी दीवाल पर गिरे हुये पत्थरकी तरह तुरन्त निवृत्ति हो जाती है। और कषायसहित जीवोंके योगके द्वारा आये हुए कर्मोंका कषायके निमित्तसे स्थिति और अनुभागबन्ध भी होता है अतः वह आस्रव संसारका कारण होता है। चौदहवें गुणस्थानमें आस्रव नहीं होता है। साम्परायिक आस्रवके भेदइन्द्रियकषायावतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥५॥ पाँच इन्द्रिय, 'चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार साम्परायिक For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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