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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठवाँ अध्याय योगका स्वरूप कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥ १ ॥ मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं । अर्थात् मन, वचन और काकी वर्गणाओं को आलंबन लेकर आत्माके प्रदेशों में जो हलन चलनरूप किया होती है उसीका नाम योग है। योगके तीन भेद हैं- काययोग, वचनयोग और मनोयोग । वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होनेपर तथा औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण शरीर रूपसे परिणत वर्गणाओं में से किसी शरीरवर्गणा के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह काययोग है । शरीर नामकर्म के उदयसे होनेवाली वर्गणा होनेपर, वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर, मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर, अक्षरादिश्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर और अन्तरंग में वचनलब्धिकी समीपता होनेपर वचनरूप परिणाम के अभिमुख आत्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है उसको वचनयोग कहते हैं । वचनयोग सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेदसे चार प्रकारका है । अन्तरंग में वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप मनोलब्धि के होनेपर और बहिरंग में मनोवर्गणाके उदय होनेपर मनरूप परिणामके अभिमुख आत्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह मनोयोग है । सयोगकेवली में वीर्यान्तराय आदिके क्षय होनेपर मनोवर्गणा आदि तीन प्रकारकी वर्गणाओंके निमित्तसे ही योग होता है । सयोगकेवलीका योग अचिन्तनीय है जैसा कि स्वामी समन्तभद्रने बृहत् स्वयंभू स्तोत्र में कहा है- हे भगवन् ! आपके मन, वचन और काकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती हैं और न विना विचारे ही होती हैं, आपकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं । आस्रवका वर्णनस आस्रवः ।। २ ॥ ऊपर कहे गये योगका नाम ही आस्रव है । कर्मके आनेके कारणोंको आस्रव कहते हैं । मन, वचन और कायकी क्रियाके द्वारा आत्मामें कर्म आते हैं अतः योगको आस्रव कहते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणात्मक भी योग होता है लेकिन वह अनास्त्र रूप है। अर्थात् दण्डादियोग कर्मों के आनेका कारण नहीं होता है। जिस प्रकार गोला वस्त्र धूलि को चारों ओर से ग्रहण करता है अथवा तप्त लोहेका गरम गोला चारों ओर से जलको ग्रहण करता है उसी प्रकार कषाय से सन्तप्त जीव योगके निमित्त से आये हुये कर्मों को सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा ग्रहण करता है । शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ३॥ पुण्य ai शुभ योग aani और अशुभ योग पापकर्मके आस्रवका कारण होता है । जो आत्माको पवित्र करे वह पुण्य है, जो आत्माको कल्याणकी ओर न जाने For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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