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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६२ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ १/३१ केवल सत्ता (भाव) को ही विषय करता है । इसी प्रकार आगे समझ लेना चाहिये । पहिले पहिले के नय आगे आगे के नयोंके हेतु होते हैं। जैसे नैगमनय संग्रहनयका हेतु है, संग्रहनय व्यवहार नयका हेतु है इत्यादि । उक्तनय परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्दर्शनके कारण होते हैं जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर (वरूपसे परिणत होकर ) ही शीतनिवारण आदि अपने कार्यको करते हैं । जिस प्रकार तन्तु पृथक् पृथक् रहकर अपना शीतनिवारण कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार परस्पर निरपेक्ष नयभी अर्थकिया नहीं कर सकते हैं । प्रश्न- तन्तुका दृष्टान्त ठीक नहीं है; क्योंकि पृथक र तन्तुभी अपनी शक्ति के अनुसार अपना कार्य करते ही हैं लेकिन निरपेक्ष नय तो कुछ भी अर्थक्रिया नहीं कर सकते । उत्तर - आपने हमारे अभिप्रायको नहीं समझा। हमने कहा था कि निरपेक्ष तन्तु वस्त्रका काम नहीं कर सकते। आपने जो प्रथकू २ तन्तुओंके द्वारा कार्य बतलाया वह तन्तुओं का ही कार्य है का नहीं | तन्तुभी अपना कार्य तभी करता है जब उसके अवयव परस्परसापेक्ष होते हैं । अतः तन्तुका दृष्टान्त बिलकुल ठीक है । इसलिये परस्पर सापेक्ष नयोंके द्वारा ही अर्थक्रिया हो सकती है । जिस प्रकार तन्तुओं में शक्तिकी अपेक्षा से वस्तुकी अर्थक्रियाका सद्भाव माना जाता है। उसी तरह निरपेक्ष नयोमें भी सम्यग्दर्शन की अङ्गता शक्तिरूपमें है ही पर अभिव्यक्ति सापेक्ष दशा में ही होगी । प्रथम अध्याय समाप्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 395 For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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