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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्याय सप्त तत्त्वोंमें से जीवके स्वतत्त्वको बतलाते हैंऔपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकौ च ॥१॥ औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक जीवके ये पांच असाधारण भाव हैं। कर्मके अनुदय को उपशम कहते हैं । कर्मों के उपशमसे होनेवाले भावोंको औपशमिक भाव कहते हैं। कर्मों के क्षयसे होने वाले भाव क्षायिक भाव कहलाते हैं। सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदयाभाविक्षय, आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकोंका सवस्थारूप उपशम और देशघाति स्पर्द्धकोंके उदयको क्षयोपशम कहते हैं और क्षयोपशमजन्य भावोंको क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। काँके उदयसे होनेवाले भावोंको औदयिकभाव कहते हैं। कर्माके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले भावों को पारिणामिकभाव कहते हैं। भव्यजीवके पाँचों ही भाव होते हैं। अभव्यके औपशमिक और क्षायिक भावोंको छोड़कर अन्य तीन भाव होते हैं। उक्त भावोंके भेदोंको बतलाते हैं द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ उक्त भावोंके क्रमसे दो, नव, अठारह, इक्कीस और तोन भेद होते हैं। औपशमिक भावके भेद सम्यक्त्व चारित्रे ॥ ३ ॥ औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव हैं । अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके काललब्धि आदि कारणों के मिलने पर उपशम होता है। कर्मयुक्त भव्य जीव संसारके काल में से अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहनेपर औपशमिक सम्यक्त्वके योग्य होता है यह एक काललब्धि है। आत्मामें कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति अथवा जघन्य स्थिति होने पर औपशमिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता किन्तु अन्तः कोटाकोटिसागर प्रमाण कर्मोकी स्थिति होनेपर और निर्मल परिणामोंसे उस स्थितिमें से संख्यात हजार सागर स्थिति कम होजाने पर औपशमिक सम्यकत्वके योग्य आत्मा होता है। यह दूसरी काललब्धि है। भव्य, पञ्चेन्द्रिय, समनस्क, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध जीव औपमिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। यह तीसरी काल लब्धि है। आदि शब्दसे जातिस्मरण, जिनमहिमादर्शनादि कारणोंसे भी सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय और नव नो कषायोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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