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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३१] प्रथम अध्याय उत्तर--यहाँ केवल ऋजुसूत्रनय का विषय दिखलाया गया है । लोक व्यवहारके लिये तो अन्य नय हैं ही। जैसे मृत व्यक्तिको देखकर कोई कहता है कि 'संसार अनित्य है' लेकिन सारा संसार तो अनित्य नहीं है। उसी प्रकार ऋजुसूत्रनय अपने विषयको जानता है लेकिन इससे लोकव्यवहारकी निवृत्ति नहीं हो सकती। उक्त चार नय अर्थनय और आगेके तीन नय शब्दनय कहलाते हैं। जो लिङ्ग, संख्या, कारक आदिके व्यभिचार का निषेध करता है वह शब्दनय है । लिङ्गव्यभिचार-पुष्य नक्षत्रं, पुष्यः तारका-पुष्य नक्षत्र, पुष्य तारा । यहाँ पुल्लिङ्ग पुष्य शब्दके साथ नपुंसकलिङ्ग नक्षत्र और स्त्रीलिंग तारा शब्दका प्रयोग करना लिङ्गव्यभिचार है संख्याव्यभिचार—आपः तोयम् , वर्षाः ऋतुः यहाँ बहुवचनान्त आपः शब्दके साथ तोयम् एकवचनान्त शब्दका और बहुवचनान्तं वर्षाः शब्दके साथ एकवचनान्त ऋतु शब्दका प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है। कारक यभिचार-सेना पर्वतमधिवसति-पर्वतमें सेना रहती है। यहाँ पर्वते इस प्रकार अधिकरण ( सप्तमी) कारक होना चाहिये था लेकिन है कर्म (द्वितीया ) कारक । यह कारकव्यभिचार है। पुरुषव्यभिचार-एहि मन्ये रथेन यास्यसि ? न यास्यसि, यातस्ते पिता । आओ, तुम ऐसा मानते हो कि 'मैं रथसे जाऊँगा', लेकिन तुम रथसे नहीं जा सकते हो, तुम्हारे बाप रथसे चले गये हैं । यहाँ 'मन्ये' उत्तम पुरुषके स्थानमें 'मन्यसे' मध्यम पुरुष और 'यास्यसि' मध्यम पुरुषके स्थानमें 'यास्यामि' उत्तम पुरुष होना चाहिये था। यह पुरुष व्यभिचार है। कालव्यभिचार-विश्वदृश्वा अस्य पुत्रो जनिता-इसके ऐसा पुत्र होगा जिसने विश्वको देख लिया है । यहाँ भविष्यत् कालके कार्यको अतीतकालमें बतलाया गया है। यह कालव्यभिचार है। उपग्रहव्यभिचार-स्था धातु परस्मैपदी है। लेकिन सम् आदि कुछ उपसर्गो के संयोगसे स्था धातुको आत्मनेपदी बना देना जैसे संतिष्ठते, अवतिष्ठते । इसीप्रकार अन्य परस्मैपदी धातुओंको आत्मनेपदी और आत्मनेपदी धातुओंको परस्मैपदी बना देना उपग्रह व्यभिचार है। उक्त प्रकारके सभी व्यभिचार शब्दनयकी दृष्टि से ठीक नहीं है। इसकी दृष्टि से उचित लिङ्ग, संख्या आदिका ही प्रयोग होना चाहिये। प्रश्न-ऐसा होनेसे लोकव्यवहार में जो उक्त प्रकारके प्रयोग देखे जाते हैं वह नहीं होंगे। उत्तर-यहाँ केवल तत्त्वकी परीक्षाकी गई है। विरोध होनेसे तत्त्वकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । औषधि रोगीकी इच्छानुसार नहीं दी जाती है । विरोध भी नहीं होगा क्योंकि व्याकरण शास्त्रकी दृष्टिले उक्त प्रयोगोंका व्यवहार होगा ही। ____एक ही अर्थ को शब्दभेदसे जो भिन्न २ रूपसे जानता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्राणीके पतिके ही इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन नाम हैं, लेकिन सममिरूढनयकी दृष्टि से परमैश्वर्यपर्यायसे युक्त होने के कारण इन्द्र, शकन-शासन पर्यायसे युक्त होनेके कारण शक और पुरदारण पर्यायसे युक्त होने के कारण पुरन्दर कहा जाता है । जो पदार्थ जिस समय जिस पर्याय रूपसे परिणत हो उस समय उसको उसी रूप ग्रहण करनेवाला एवंभूतनय है । जैसे इन्द्र तभी इन्द्र कहा जायगा जब वह ऐश्वर्यपर्यायसे युक्त हो, पूजन या अभिषेकके समय वह इन्द्र नहीं कहलायगा। तथा गायको गौ तभी कहेंगे जब वह गमन करती हो, सोने या बैठने के समय उसको गौ नहीं कहेंगे। उक्त नयोंका विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । नैगमकी अपेक्षा संग्रहनयका विषय अल्प है। नैगमनय भाव और अभाव दोनों को विषय करता है लेकिन संग्रहनय For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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