SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१।३३ तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार करना स्वरूपविपर्यय है। अतः मिथ्यादर्शनके साथ जो ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दर्शनके साथ जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान है। नयोंका वर्णननैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढेवंभूता नयाः ।। ३३ ॥ नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय हैं। जीवादि वस्तुओंमें नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। द्रव्य या पर्याय की अपेक्षासे किसी एक धर्मके कथन करनेको नय कहते हैं। अथवा ज्ञाताके अभिप्राय विशेषका नय कहते हैं । नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको द्रव्यार्थिक और पर्यायको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको पर्यायार्थिक कहते हैं। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्यार्थिक हैं। और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार नय पर्यायार्थिक है। भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली वस्तुका संकल्प करके वर्तमानमें उसका व्यवहार करना नगमनय है। जैसे कोई पुरुष हाथ में कुठार ( कुल्हाड़ी) लेकर जा रहा था। किसीने उससे पूछा कि कहाँ जा रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि प्रस्थ (अनाज नापनेका काठका पात्र-पैली) लेनेको जा रहा हूँ। वास्तवमें वह प्रस्थ लेनेके लिये नहीं जा रहा है किन्तु प्रस्थके लिये लकड़ी लेनेको जा रहा है। फिर भी उसने भविष्यमें बननेवाले प्रस्थका वर्तमान में संकल्प करके कह दिया कि प्रस्थ लेने जा रहा हूँ। इसी प्रकार लकड़ी, पानी आदि सामग्रीको इकट्ठे करनेवाले पुरुषसे किसीने पूछा कि क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि रोटी बना रहा हूँ। यद्यपि उस समय वह रोटी नहीं बना रहा है लेकिन नगम नयको अपेक्षा उसका ऐसा कहना ठीक है। जो भेदकी विवक्षा न करके अपनी जातिके समस्त अर्थोंका एक साथ ग्रहण करे वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' शब्दसे संसारके समस्त सत् पदार्थों का, 'द्रव्य' शब्दसे जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंका और 'घट' शब्दसे छोटे बड़े आदि समस्त घटोंका ग्रहण करना संग्रह नयका काम है। संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदाथोंके विधिपूर्वक भेद व्यवहार करनेको व्यवहारनय कहते हैं। जैसे संग्रह नय 'सत्' के द्वारा समस्त सत् पदार्थों का ग्रहण करता है। पर व्यवहारनय कहता है कि सत्तके दो भेद हैं द्रव्य और गुण। द्रव्यके भी दो भेद हैं। जीव और अजीव । जीवके नरकादि गतियोंके भेदसे चार भेद हैं और अजीव द्रव्यके पुद्गल आदि पाँच भेद हैं। इस प्रकार व्यवहारनयके द्वारा वहाँ तक भेद किये जाते हैं जहाँ तक हो सकते हैं । अर्थात् परम संग्रहनयके विषय परम अभेदसे लेकर ऋजुसूत्र नयके विषयभूत परमभेदके बीचके समस्त विकल्प व्यवहारनयके ही हैं। भूत और भविष्यत् कालकी अपेक्षा न करके केवल वर्तमान समयवर्ती एक पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयको ऋजुसूत्र नय कहते हैं । ऋजुसूत्रनयका विषय अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इस विषयमें कोई दृष्टान्त नहीं दिया जा सकता। प्रश्न--ऋजुसूत्र नयके द्वारा पदार्थोंका कथन करनेसे लोक व्यवहारका लोप ही हो जायगा। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy