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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ १।२२-२३ क्षयोपशम निमित्तक अवधिमानक्षयोपशमनिमित्तः षड्विकन्पः शेषाणाम् ॥२२॥ क्षयोपशमके निमित्त से होनेवाला अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है। इसके छह भेद हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित। ___अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोंका उदय होनेपर उदयप्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभावी क्षय और अनुदयप्राप्त सर्वघाती स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम होनेको क्षयोपशम कहते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्चोंके अवधिज्ञानका कारण क्षयोपशम ही है भव नहीं। अवधिज्ञान संज्ञी और पर्याप्तकोंके होता है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबके नहीं होता है किन्तु सम्यग्दर्शन आदि कारणों के होनेपर उपशान्त और क्षीणकर्म वाले जीवोंके अवधिज्ञान होता है। अनुगामी-जो अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाशकी तरह जीवके साथ दूसरे भवमें जावे वह अनुगामी है। अननुगामी-जो अवधि जीवके साथ नहीं जाता है वह अननुगामी है। वर्धमान-जिस प्रकार अग्निमें इन्धन डालनेसे अग्नि बढ़ती है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि से विशुद्ध परिणाम होनेपर जो अवधिज्ञान बढ़ता रहे यह वर्धमान है। हीयमान-इन्धन समाप्त हो जानेसे अग्निकी तरह जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी हानि और आर्त्त-रौद्र परिणामोंकी वृद्धि होनेसे जितना उत्पन्न हुआ था उससे अङ्गुलके असंख्यातवें भाग पर्यन्त घटता रहे वह हीयमान है। अवस्थित-जो अवधिज्ञान जितना उत्पन्न हुआ है केवलज्ञानकी प्राप्ति अथवा आयुकी समाप्ति तक उतना ही रहे, घटे या बढ़े नहीं वह अवस्थित है। अनवस्थित-सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी वृद्धि और हानि होनेसे जो अवधिज्ञान बढ़ता और घटता रहे वह अनवस्थित है। ये छह भेद देशावधिके ही हैं । परमावध और सर्वावधि चरमशरीरी विशिष्ट संयमीके ही होते हैं। इनमें हानि और वृद्धि नहीं होती है। गृहस्थावस्थामें तीर्थङ्करके और देव तथा नारकियोंके देशावधि ही होता है। मनःपर्ययज्ञानके भेद ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ मनःपर्ययज्ञानके दो भेद हैं--ऋजुमति और विपुलमति । जो मन, वचन और कायके द्वारा किये गये दूसरेके मनोगत सरल अर्थको जाने वह ऋजुमति है। जो मन, वचन, ओर कायके द्वारा किये गये दूसरेके मनोगत कुटिल अर्थको जानकर वहाँ से लौटे नहीं, वहीं स्थिर रहे वह विपुलमति है। वीर्यान्तराय और मनःपर्यय ज्ञानावरणके क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होनेपर दूसरेके मनोगत अर्थको जाननेको मनःपर्यय कहते हैं। ऋजुमति मनः पर्यय कालकी अपेक्षा अपने और अन्य जीवोंके गमन और आगमनकी अपेक्षा जघन्यसे दो या तीन भवोंको और उत्कृष्टसे सात या आठ भवोंको जानता है। और क्षेत्रकी For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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