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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२४-२५ ] प्रथम अध्याय ३५७ अपेक्षा जघन्य गव्यूति पृथक्त्व और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्वके भीतर जानता है । विपुलमति मन:पर्यय कालकी अपेक्षा जघन्य सात या आठ भक्केंको और उत्कृष्ट असंख्यात भवोंको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य योजनपृथक्त्व और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वतके भीतर जानता है बाहर नहीं । ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर -- विशुद्ध प्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति में विशेषता है । मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा के परिणामोंकी निर्मलताका नाम विशुद्धि है संयम से पतित नहीं होना अप्रतिपात है । उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तीके चारित्रमोहका उदय श्रनेके कारण प्रतिपात होता है। क्षीणकषायका नहीं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा ऋजुमतिसे विपुलमति विशुद्धतर है । सर्वावधि कार्मणद्रव्यके अनन्तवें भागको जानता है। उस अनन्तवें भाग के भी अनन्त वें भागको ऋजुमति जानता है । और ऋजुमतिके विषयके अनन्तवें भागको विपुलमति जानता है । इस प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्यको जाननेके कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विमुलमति ऋजुमतिसे विशुद्धतर है । अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमतिमें विशेषता है । विपुलमति मन:पर्ययज्ञानियोंके चारित्रको उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है अतः उसका प्रतिपात ( पतन ) नहीं होता है। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानियों के चारित्रकी कषायके उदयसे हानि होनेसे उसका प्रतिपात हो जाता है । अवधि और मन:पर्ययज्ञानमें विशेषता विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्यययोः ॥ २५ ॥ अवधि और मन:पर्ययज्ञानमें विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षा विशेषता है। सूक्ष्म वस्तुको जाननेके कारण अवधिज्ञानसे मनःपयेयज्ञान विशुद्ध है । मन:पर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानका क्षेत्र अधिक है। अवधिज्ञान तीन लोकमें होनेवाली पुद्गलकी पर्यायोंको और पुदलसे सम्बन्धित जीवकी पर्यायोंको जानता है । मन:पर्ययज्ञान मानुषोत्तर पर्वतके भीतर ही जानता है। मन:पर्ययज्ञान मनुष्योंमें उत्पन्न होता है, देव, नारकी और तिर्योंके नहीं । मनुष्यों में भी गर्भजों के ही होता है संमूर्च्छनोंके नहीं । गर्भजों में भी कर्मभूमिजोंके ही होता है भोगभूमिजोंके नहीं । कर्मभूमिजों में भी पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकोंके नहीं । पर्याप्तकों में भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है मिध्यादृष्टि आदिके नहीं । सम्यग्दृष्टियों में भी संयतों के होता है असंयतोंके नहीं । संयतों में भी छठवें गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक होता है तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं होता है । उनमें भी प्रवर्धमान चारित्रवालोंके ही होता है हीयमानचारित्र वालोंके नहीं । प्रवर्धमानचारित्रवालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि धारी के ही होता है अनृद्धिधारीके नहीं । ऋद्धिधारियों में भी किसीके ही होता है सबके नहीं । अतः मन:पर्ययज्ञानके स्वामी विशिष्टसंयमवाले ही होते हैं । अवधिज्ञान चारों ही गतियों में होता है । For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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