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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१] प्रथम अध्याय ३५५ ३ मायागता चूलिका-इसमें इन्द्रजाल आदि मायाके उत्पादक मन्त्र-तन्त्रोंका वर्णन है। .. ४ आकाशगता चूलिका-इसमें आकाशमें गमनके कारणभूत मन्त्र-तन्त्रोंका वर्णन है। ५ रूपगता चूलिका-सिंह, व्याघ्र, गज, उरग, नर, सुर आदिके रूपों (वेष ) को धारण करानेवाले मन्त्र-तन्त्रोंका वर्णन है। इन सबके पदोंकी संख्या जलगता चूलिका के पदोंकी संख्याके बराबर ही है। इस प्रकार बारहवें अङ्गके परिकर्म आदि पाँच भेदोंका वर्णन हुआ। इक्यावन करोड आठ लाख चौरासी हजार छः सौ सादे इक्कीस अनुष्टुप् एक पदमें होते हैं । एक पदके ग्रन्थोंकी संख्या ५१०८८४६२१३ है। अङ्गपूर्वश्रुतके एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पद होते हैं। __ भवप्रत्यय अवधिज्ञान . भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है। आयु और नाम कर्मके निमित्तसे होनेवाली जीवकी पर्यायको भव कहते हैं। देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव होता है अर्थात् इनके जन्मसे ही अवधिज्ञान होता है। प्रश्न-यदि देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव है तो कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं होगा। उत्तर-जिस प्रकार पक्षियों के आकाशगमनका कारण भव होता है शिक्षा आदि नहीं, उसी प्रकार देव और नारकियों के अवधिज्ञानका प्रधान कारण भव ही है। क्षयोपशम गौण कारण है । व्रत और नियमके न होने पर भी देव और नारकियों के अवधिज्ञान होता है। यदि देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही होता तो सबको समान अवधिज्ञान होना चाहिए, लेकिन देवों और नारकियोंमें अवधिज्ञानका प्रकर्ष और अपकर्ष देखा जाता है। यदि सामान्यसे भव ही कारण हो तो एकेन्द्रिय आदि जीवोंको भी अवधिज्ञान होना चाहिए। अतः देवों और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही नहीं है किन्तु कर्मका क्षयोपशम भी कारण है। ___सम्यग्दृष्टि देव और नारकियों के अवधि होता है और मिथ्यादृष्टियोंके विभङ्गावधि । सौधर्म और ऐशान इन्द्र प्रथम नरक तक,सनत्कुमार और माहेन्द्र द्वितीय नरक तक,ब्रह्म और लान्तव तृतीय नरक तक, शुक्र और सहस्रार चौथे नरक तक, आनत और प्राणत पाँचवें नरक तक, आरण और अच्युत इन्द्र छठवें नरक तक और नव वेयकोंमें उत्पन्न होने वाले देव सातवें नरक तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव सर्वलोकको देखते हैं। प्रथम नरकके नारकी एक योजन, द्वितीय नरकके नारकी आधा कोश कम एक योजन, तीसरे नरकके नारकी तीन गव्यूति, (गव्यूतिका परिमाण दो कोस है ) चौथे नरकके नारकी अढ़ाई गव्यूति, पाँचवें नरकके नारकी दो गव्यूति, छठवें नरकके नारकी डेड गव्यूति और सातवें नरकके नारकी एक गम्यूति तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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