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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४० www.kobatirth.org तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ शट प्रत्येक गुणस्थान में २९९ उपशमक होते हैं । प्रश्न- १६ आदि आठ समयकी संख्याका जोड़ ३०४ होता है फिर २९९ कैसे बतलाया ? उत्तर - आठ समयों में औपशमिक निरन्तर होते हैं किन्तु पूर्ण संख्या में ५ कम होते हैं । अतः चारों गुणस्थानोंके उपशमकोंकी संख्या ११९६ है । पूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकपाय और अयोगकेवली इन गुणस्थानों में प्रत्येक आठ आठ समय होते हैं । और प्रत्येक समय की संख्या उपशमकसे द्विगुणी है। कहा भी है ३२, ४८, ६०, ७२, ८४, ९६, १०८, १०८ क्रमशः प्रथम आदि समयोंकी संख्या है। प्रत्येक गुणस्थान में सम्पूर्ण संख्या ५९८ है । प्रश्न- इन गुणस्थानों में भी ६०८ संख्या होती है, ५६८ किस प्रकार संभव है ? उत्तर -- जिस प्रकार उपशमकों की संख्या में ५ कम हो जाते हैं उसी प्रकार क्षपकों की संख्या में भी द्विगुणी हानि होने से १० कम हो जाते हैं । अतः ५९८ ही संख्या होती है । इस प्रकार ५ क्षपक गुणस्थानों की समस्त संख्या २९९० है । कहा भी है क्षीणकषायों की संख्या २९९० है । सयोगकेवली भी उपशमकों की अपेक्षा द्विगुणित हैं। अतः प्रथम समय में १, २, ३ इत्यादि ३२ पर्यन्त उत्कृष्ट संख्या है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समयों में समझना चाहिए । प्रश्न- क्षपकों की तरह ही सयोगकेवलियोंकी संख्या है | अतः सयोगकेवलीका पृथक् वर्णन क्यों किया ? उत्तर - आठ समयवर्ती समस्त केवलियोंकी संख्या ८९८५०२ है । अतः समुदित संख्या की अपेक्षा क्षपकों से विशेषता होने के कारण सयोगकेवलीका वर्णन पृथक् किया है । कहा भी है 'जिनों की संख्या ८ लाख ९८ हजार ५०२ है ।' प्रमत्तसंयत से अयोगकेवली पर्यन्त एक समयवर्ती समस्त जीवोंकी उत्कृष्ट संख्या ८९९९९९९७ हैं । इस प्रकार सामान्य संख्याका वर्णन हुआ। क्षेत्रका वर्णन सामान्य और विशेषकी अपेक्षा किया गया है । सामान्यसे मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र सर्वलोक है । सासादन सम्यग्दृष्टिसे क्षीणकषाय पर्यन्त और अयोगकेवलीका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग है । सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा लोकके असंख्यात भाग या सर्वलोक है। प्रश्न-सयोगकेवलीका लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र कैसे है ? For Private And Personal Use Only उत्तर- दण्ड और कपाटकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र होता है । इसका विवरण इस प्रकार है- यदि समुद्धात करने वाला कायोत्सर्गसे स्थित है तो दण्डसमुद्वातको बारह अङ्गुल प्रमाण समवृत्त ( गोलाकार ) करेगा अथवा मूल शरीरप्रमाण समवृत्त करेगा । और यदि बैठा हुआ है तो प्रथम समय में शरीर से त्रिगुण बाहुल्य अथवा तीन वातवलय कम लोक प्रमाण करेगा । कपाट समुद्धातको यदि पूर्वाभिमुख होकर करेगा तो दक्षिण-उत्तरकी ओर एक धनुष प्रमाण विस्तार होगा। और उत्तराभिमुख होकर करेगा तो पूर्व-पश्चिम की और द्वितीय समय में आत्मप्रसर्पण करेगा इसका विशेष व्याख्यान संस्कृत महापुराणपञ्जिकामें है । प्रतरकी अपेक्षा लोकके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्र होता है । प्रतर अवस्था में
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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