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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८] प्रथम अध्याय ३४१ सयोगकेवली तीनों वातवलयोंके नीचे ही श्रात्मप्रदेशोंसे लोकको व्याप्त करता है । लोक पूरण अवस्थामें तीनों चातवलयोंको भी व्याप्त करता है । अतः सर्वलोक भी क्षेत्र होता है। स्पर्शन भी सामान्य और विशेषके भेदसे दो प्रकार का है। सामान्यसे मिथ्यादृष्टियों के द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है। असंख्यात करोड़ योजन प्रमाण आकाशके प्रदेशोंको एक राजू कहते हैं। और तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण लोक होता है। लोकमें स्वस्थानविहार, परस्थान विहार और मारणान्तिक उपपाद प्राणियोंके द्वारा किया जाता है। स्वस्थानविहार की अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टियों के द्वारा लोकका असंख्यातयाँ भाग स्पर्श किया जाता है । परस्थानविहार की अपेक्षा सासादनदेवों द्वारा तृतीयनरक पर्यन्त विहार होनेसे दो राजू क्षेत्र स्पृष्ट है । अच्युत स्वर्ग के उपरिभाग पर्यन्त विहार होनेसे ६ राजू क्षेत्र स्पृष्ट है । इस प्रकार लोकके ८, १२ या कुछ कम १४ भाग स्पृष्ट हैं । प्रश्न-द्वादश भाग किस प्रकार स्पृष्ट होते हैं ? उत्तर-सप्तम नरकमें जिसने सासादन आदि गुण स्थानोंको छोड़ दिया है वही जीव मारणान्तिक समुद्धात करता है इस नियमसे षष्ठ नरकसे मध्यलोक पर्यन्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिकको करता है । और मध्यलोकसे लोकके अग्रभागपर्यन्त बादरपृथ्वी, अप् और वनस्पति कायमें उत्पन्न होता है। अतः ७ राजू क्षेत्र यह हुआ । इस प्रकार १२ राजू क्षेत्र हो जाता है। यह नियम है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिक, तेजकायिक, नरक और सर्वसूक्ष्म कायिकोंमें उत्पन्न नहीं होता है। कहा भी है। तेजकायिक, वायुकायिक, नरक और सर्वसूक्ष्मकायिकको छोड़कर बाकीके स्थानों में सासादन जीव उत्पन्न होता है। प्रश्न-देशोन क्षेत्र कैसे होता है ? । ___ उत्तर-कुछ प्रदेश सासादन सम्यग्दृष्टिके स्पर्शन योग्य नहीं होते हैं इसलिये देशोन क्षेत्र हो जाता है। आगे भी देशोनता इसी प्रकार समझनी चाहिए। सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके द्वारा लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोकके आठ भाग अथवा कुछ कम १४ भाग स्पृष्ट है। प्रश्न-किस प्रकार से ? उत्तर-सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके द्वारा परस्थानविहारकी अपेक्षा आठ राजू स्पृष्ट हैं। संयतासंयतोंके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग, छह भाग अथवा कुछ कम चौदह भाग स्पृष्ट हैं। प्रश्न-किस प्रकार से ? स्वयंभूरमणमें स्थित संयतासंयत तिर्यञ्चोंके द्वारा मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा छह राजू स्पृष्ट हैं। प्रमत्तसंयतसे अयोगकेवली पर्यन्त गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान ही है। क्योंकि प्रमत्तसंयत्त आदिका क्षेत्र नियत है और भवान्तर में उत्पादस्थान भी नियत है। अतः चतुष्कोण रज्जूके प्रदेशोंमें निवास न होनेसे लोकके असंख्यातवाँ भाग स्पशन है। सयोगकेवलीके भी क्षेत्रके समान ही लोकका असंख्यातवाँ भाग, लोकके असंख्यात भाग अथवा सर्वलोक स्पर्शन है। काल-सामान्य और विशेषके भेदसे काल दो प्रकारका है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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