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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [ १२५ संसार और मोक्ष जीवके ही होते है अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व कहा है। जीव अजीवके निमित्तसे ही संसार या मोक्ष पर्यायको प्राप्त होता है अतः जीवके बाद अजीव का कथन किया है। जीव और अजीवके निमित्तसे ही आस्रव होता है अतः इसके बाद आस्रव तथा आस्रवके बाद बन्ध होता है अतः उसके बाद बन्ध का निर्देश किया है । बन्ध को रोकनेवाला संवर होता है अतः बन्ध के बाद संवर तथा जिसने आगामी कर्मोंका संवर कर लिया है उसीके संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है इसलिए उसके अनन्तर निर्जराका कथन किया गया है। सबके अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है अतः मोक्षका निर्देश अन्तमें किया गया है। पुण्य और पापका आस्रव और बन्ध तत्त्वमें अन्तर्भाव हो जाता है अतः उन्हें पृथक् नहीं कहा है। प्रश्न-आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये पांच तत्त्व द्रव्य और भावरूप होते हैं। उनमें द्रव्यरूप तत्वोंका अजीवमें तथा भावरूप तत्त्वोंका जीवमें अन्तर्भाव किया जा सकता है, अतः दो ही तत्त्व कहना चाहिए ? उत्तर-इस मोक्षशास्त्रमें मोक्ष तो प्रधान है अतः उसे तो अवश्य कहना ही होगा। मोक्ष संसारपूर्वक होता है। अतः संसारका कारण बन्ध और आस्रव भी कहने चाहिए, इसी तरह मोक्षके कारण संवर और निर्जरा भी। तात्पर्य यह कि प्रधान कार्य संसार और मोक्ष तथा उनके प्रधान कारण आस्रव बन्ध और संवर निर्जराका कथन किया गया है । संवर और निर्जराका फल मोक्ष है तथा आस्रव और बन्धका फल संसार । यद्यपि संसार और मोक्ष में आस्त्रवादि चारोंका अन्तर्भाव किया जा सकता है फिर भी जिस प्रकार क्षत्रिय आए हैं. शूरवर्मा भी' इस वाक्यमें सामान्य क्षत्रियों में अन्तभूत शुरवर्माका पृथक् कथन विशेष प्रयोजनसे किया जाता है उसी प्रकार विशेष प्रयोजनके लिए ही आस्रवादिक तत्त्वोंका भिन्न भिन्न रूपसे कथन किया है। प्रश्न-जीवादिक सात द्रव्यवाची हैं तथा तत्त्वशब्द भाववाची है अतः इनमें व्याकरणशास्त्रके नियमानुसार एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता ? उत्तर-द्रव्य और भावमें अभेद है अतः दोनों एकार्थप्रतिपादक हो सकते हैं। अथवा जीवादिकमें तत्त्वरूप भावका आरोप करके सामानाधिकरण्य बन जाता है। सामानाधिकरण्य होने पर भी मोक्ष शब्द पुल्लिंग तथा तत्त्वशब्द नपुंसकलिंग बना रह सकता है। क्योंकि बहुतसे शब्द अजहल्लिङ्ग अर्थात् अपने लिङ्गको न छोड़नेवाले होते हैं। इसी तरह वचनभेद भी हो जाता है । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस प्रथमसूत्र में भी इसी तरह सामाधिकरण्य बन जाता है। शब्दव्यवहार जिन अनेक निमित्तोंसे होता है, उन प्रकारोंको कहते हैं नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५॥ नाम स्थापना द्रव्य और भावसे सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थोंका व्यवहारके लिए विभाग या निक्षेप (दृष्टिके सामने रखना) होता है। शब्दकी प्रवृत्ति द्रव्य क्रिया जाति और गुणके निमित्तसे देखी जाती है। जैसे डवित्थ-लकड़ीके मृगमें काष्ठद्रव्यको निमित्त लेकर मृगशब्दका प्रयोग होता है। करनेवालेको का कहना क्रियानिमित्तक है। द्विजत्व जातिके निमित्तसे होनेवाला द्विजव्यवहार जातिनिमित्तक है। फीके लालगुणके निमित्तसे होनेवाला पाटलव्यवहार गुणनिमित्तक है । शब्दके इन द्रव्य गुणादि प्रवृत्तिनिमित्तोंकी अपेक्षा न करके व्यवहारके For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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