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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय लिए अपनी इच्छानुसार नाम रख लेना नाम निक्षेप है। जैसे किसी लड़केकी गजराज यह संज्ञा। लकड़ीमें खोदे गए, सूतसे काढ़े गए, गोबर आदिसे लीपे गए वस्तुके आकार में 'यह वही है' इस प्रकारकी स्थापना तदाकारस्थापना है । शतरंजके अतदाकार गुहरों में हाथी घोड़ा आदिकी कल्पना अतदाकारस्थापना है। जो गणवाला था, है तथा रहेगा वह द्रव्य है। वर्तमान पर्यायवाला द्रव्य ही मात्र कहलाता है। जैसे-जीवनगुणकी अपेक्षाके बिना जिस किसी पदार्थको जीव कहना नामजीव है। उस आकारवाले या उस आकारसे रहित पदार्थ में उस जीवकी कल्पना स्थापनाजीव है। जैसे हाथी घोड़े के आकारवाले, खिलौनों को या शतरंजके मुहरोंको हाथी घोड़ा कहना । जीवशास्त्र को जाननेवाला किन्तु वर्तमान में उसमें उपयुक्त न रहनेवाला आत्मा अागमद्रव्यजीव है। ज्ञाताका शरीर, कर्म, नोकम आदि नोागमद्रव्यजीव है । सामान्यआपले नोआगमद्रव्यजीध नहीं है क्योंकि कोई अजीब जीव नहीं बनता। पर्यायकी दृष्टिस नोआगमन्यजीवकी कल्पना हो सकती है। जैसे कोई मनुष्य मरकर देव होनेवाला है उसे आज भी भामिनोआगमद्रव्यदेव कह सकते है। अथवा जो आज जीवशास्त्रको नहीं जानता पर आग जानेगा यह भो भाबिनोआगराद्रव्यजीव कहा जा सकता है। जीवशास्त्रको जानकर उसमें उपयुक्त आत्मा अगमभावजीव है ! जीवन पर्याय युक्त आत्मा नोआगमभावजीव है । इस तरह अनेक प्रकारके जीवोंमसे अप्रस्तुत जीवोंको छोड़कर प्रकृतीको पहिचानने के लिए निक्षेपकी आवश्यकता है। तात्पर्य यह कि हमें किस समय कौनमा जीव अपेक्षित है यह समझना निक्षेपका प्रयोजन है। जैसे जब बच्चा शेरके लिए रो रहा हो तब स्थापना शेरकी आवश्यकता है। शेरसिंह पुकारनेपर शेरसिंह नामराले व्यक्तिकी आवश्यकता है। आदि। . 'नामस्थापनाद्रव्यभावतो न्यासः' इतना ही सूत्र बनानेसे प्रधानभूत सम्यग्दर्शना'दिका ही ग्रहण होता अतः प्रधानभूत सम्बग्दर्शनादि तथा उनके विषयभूत जीवादि सभीका संग्रह करने के लिए खासतौरसे सर्वसंग्राहक 'तत्' शब्द दे दिया है। नामादिनिक्षेपके विषयभूत जीवादि पदार्थो को जानने का उपाय बतलाते हैं प्रमाणन्यैरधिगमः ॥ ६॥ प्रमाण और नयके द्वारा जीवादिपदार्थोंका ज्ञान होता है। प्रमाण स्वार्थ और परार्थ के भेदसे दो प्रकारका है । श्रुत स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। अन्य प्रमाण स्वार्थ ही हैं। ज्ञानात्मकको स्वार्थ तथा वचनात्मक को परार्थ कहते हैं। नय वचनकल्परूप होते हैं। सूत्र में नय शब्दको अल्लस्वरवाला होनेसे प्रमाण शब्दके पहिले कहना चाहिए था लेकिन नयकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य है अतः प्रमाण शव्द पाहले कहा गया है। नयकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य इसलिये है कि प्रमाणके द्वारा जाने गये पदार्थों के एक देशको ही नय जानता है। प्रमाण सम्पूर्ण पदार्थको जानता है । नय पदार्थ के एकदेश को जानता है। प्रमाण सकलादेशी होता है और नय विकलादेशी। नय दो प्रकारका है एक द्रव्यार्थिक For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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