SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३-४] प्रथम अध्याय ३३१ तो देखना तो सभी आंखवाले प्राणियोंको होता है अतः सभीके सम्यग्दर्शन मानना होगा। देखना मात्र मोक्षका मार्ग नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है-एक सराग सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम संवेग अनुकम्पा आर आस्तिक्यसे पहिचाना जानेवाला सम्यग्दर्शन सराग सम्यग्दर्शन है। रागादि दोषोंके उपशमको प्रशम कहते हैं। विविध दुःखमय संसारसे डरना संवेग है। प्राणिमात्रके दुःख दूर करनेकी इच्छासे चित्तका दयामय होना अनुकम्पा है। देव, शास्त्र, व्रत और तत्त्वों में दृढ़प्रतीतिको आस्तिक्य कहते हैं। वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धि रूप होता है। सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रकार तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ यह सम्यग्दर्शन स्वभावसे अर्थात् परोपदेशके विना और अधिगमसे अर्थात् परोपदेशसे उत्पन्न होता है। शंका-निसर्गज सम्यग्दर्शनमें भी अर्थाधिगम तो अवश्य ही रहता है क्योंकि पदार्थोंके के ज्ञान हुए बिना श्रद्धान कैसा ? तब इन दोनों सम्यग्दर्शनों में वास्तविक भेद क्या है ? समाधान-दोनों ही सम्यग्दर्शनोंमें अन्तरङ्ग कारण दर्शनमोह कर्मका उपशम या क्षयोपशम समान है। इस अन्तरङ्ग कारणकी समानता रहनेपर भी जो सम्यग्दर्शन गुरूपदेशके बिना उत्पन्न हो वह निसर्गज कहा जाता है, जो गुरूपदेशसे हो वह अधिगमज । निसर्गज सम्यग्दर्शनमें भी प्रायः गुरूपदेश अपेक्षित रहता है पर उसे स्वाभाविक इसलिए कहते हैं कि उसके लिए गुरुको विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता सहज ही शिष्यको सम्यग्दर्शन ज्योति प्राप्त हो जाती है। शंका-"जो पहिले कहा जाता है उसीका विधान या निषेध होता है" यह व्याकरण का प्रसिद्ध नियम है। अतः इस सूत्रमें 'तत् पद न भी दिया जाय फिर भी पूर्वसूत्रसे 'सम्यग्दर्शन' का सम्बन्ध जुड़ ही जाता है तब इस सूत्र में 'तत्' पद क्यों दिया गया है ? समाधान-जिस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द पूर्ववर्ती है उसी प्रकार मोक्षमार्ग शब्द भी पूर्ववर्ती है । मोक्षमार्ग प्रधान है। अतः "समीपवर्तियों में भी प्रधान बलवान होता है। इस नियमके अनुसार इस सूत्रमें मोक्षमार्गका सम्बन्ध जुड़ सकता है। इस दोषको दूर करनेके लिए और सम्यग्दर्शनका सम्बन्ध जोड़नेके लिए इस सूत्र में 'सत्' पद दिया गया है। तत्त्व क्या हैं जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।। ४ ।। जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । जिसमें ज्ञान-दर्शनादिरूप चेतना पायी जाय वह जीव है। जिसमें चेतना न हो वह अजीव है। कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। आए हुए कर्मोंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना बन्ध है। कर्मों के आनेको रोकना संवर है । पूर्वसंचित कोका क्रमशः क्षय होना निर्जरा है । समस्त कर्मोंका पूर्णरूपसे आत्मासे पृथक् होना मोक्ष है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy