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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलवतत्त्वनिरूपण यदि दर्शनके सम्बन्धमं हैं तो दर्शनावरणके आस्रवके कारण हो जाते हैं। इसी तरह आचार्य और उपाध्यायले शत्रुता रखना, अकाल अध्ययन, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़ने में आलस करना, व्याख्यान को अनादर पूर्वक सुनना, तीर्थोपरोध, बहुश्रुतके समक्ष भी ज्ञानका गर्व करना, मिथ्या उपदेश दे कर दूसरेके मिथ्या ज्ञान में कारण बनना, वहुश्रुतका अपमान करना, लोभादिवश तत्त्वज्ञानके पक्षका त्याग करके अतत्त्वज्ञानीय पक्षको ग्रहण करना, असम्बद्ध प्रलाप, सूत्र विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानार्जन करना, शास्त्र वित्रय आदि जितने ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानके साधनों में विघ्न और द्वेषोत्पादक भाव और क्रियाएँ होती है उन सबसे आत्मापर ऐसा संस्कार पड़ता है जो ज्ञानावरण कर्म के आरवका हेतू होता है। देव गुरु आदिक दर्शनमें मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराय करना, किसीकी आंख फोड़ देना, इन्द्रियोंका अभिमान करना, नेत्रोंका अहंकार करना, दीर्घ निद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, सम्यग्दष्टिमें दोषोद्भावन, कुशास्त्र प्रशंसा, गुरुजगु' मा आदि दर्शनके विघातक भाव और क्रियाएँ दर्शनावरण का आसव कराती हैं। असातावेदनीय-अपने में परमें और दोनोंमें दुःख शोक आदि उत्पन्न करनेसे आसातावेदनीयका आम्रव होता है। स्व पर या उभयमें दुःख उत्पन्न करना, इष्टवियोगमें अत्यधिक विकलता और शोक करना, निन्दा मानभंग या कर्कशवचन आदिसे भीतरही भीतर जलना, परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक बहु विलास करना, छाती कूटकर या सिर फोड़कर आक्रन्दन करना, दुःखसे आंखें फोड़ लेना या आत्महत्या कर लेना, इस प्रकार रोना चिल्लाना कि सुननेवाले भी रो पड़ें, गोक आदिसे लंघन करना, अशभ प्रयोग, परनिन्दा, पिशुनता, अदया, अंग उपांगोंका छेदन भेदन ताड़न, ग्राम, अंगुली आदिसे तर्जन करना,वचनोंसे भत्सना करना, रोधन, बंधन, दमन, आत्म प्रशंसा, क्लेशोत्पादन, बहुपरिग्रह, आकुलता, मन वचन कायकी कुटिलता, पाप कार्योंसे आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पिंजरा आदिका बनाना इत्यादि जितने कार्य स्वयं में परमें या दोनोंमे दुःख आदिके उत्पादक है वे सब असाता वेदनीय कर्मके आस्रवमें कारण होते हैं। सातावेदनीय-प्राणिमात्र पर दयाका भाव, मुनि और श्रावकके व्रत धारण करनेवाले व्रतियोंपर अनुकम्पाके भाव, परोपकारार्थ दान देना, प्राणिरक्षा, इन्द्रियजय, शान्ति अर्थात् क्रोध मान मायाका त्याग, गौच अर्थात् लोभका त्याग, रागपूर्वक संयम धारण करना, अकामनिर्जरा अर्थात् शान्तिसे कर्मों के फलका भोगना, कायक्लेश रूप कठिन बाह्यतप, अर्हत्पूजा आदि शुभ राग, मुनि आदिकी सेवा आदि स्व पर तथा उभयमें निराकुलता मुसके उत्पादक विचार और क्रियाएँ सातावेदनीयके आस्रवका कारण होती हैं। दर्शनमोहनीय--जीवन्मुक्त केवली शास्त्र संघ धर्म और देवोंकी निन्दा करना इनमें अवर्णवाद अर्थात् अविद्यमान दोषोंका कथन करना दर्शन मोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व कर्मका आरव करता है। केवली गंगी होते हैं, कवलाहारी होते हैं, नग्न रहते हैं पर वस्त्रायुक्त दिखाई देते हैं, इत्यादि केवलीका अवर्ण वाद है। नास्त्र में मांसाहार आदिका समर्थन करना श्रुतका अवर्णवाद है। शास्त्र मुनि आदि मलिन हैं, स्नान नहीं करते, कलिकालके साब हे इत्यादि संघका अवर्णवाद है। धर्म करना व्यर्थ है , अहिंसा कायरता है आदि धर्मका अवर्णवाद है। देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं आदि देवोंका अवर्णवाद है। सारांश यह कि देव गुर धर्म संघ और श्रुतके सम्बन्धमें अन्यथा विचार और मिथ्या धारणाएँ मिथ्यात्वको पोषण करती हैं और इससे दर्शनमोह का आस्रव होता है जिससे यथार्थ तत्त्वरुचि नहीं हो पाती। चारित्र मोहनीय-स्वयं और परमें कषार उत्पन्न करना, तशीलवान् पुरुषों में दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराय करना, देश संयमियोंसे व्रत और शीलका त्याग कराना. मात्सर्यादिसे रहित सज्जन पुरुषोंमें मतिविभ्रम उपन्न करना, आर्त और रौद्र परिणाम आदि कषाय की तीव्रताके साधन कषाय चारित्र मोहनीयके आस्रवके कारण हैं । समीचीन धार्मिकोंकी हंसी करना, दीनजनोंको देखकर हंसना, काम विकारक भावों पूर्वक हंसना, बहु प्रलाप तथा निरन्तर भांडों जैसी हंसोड़ प्रवृत्तिसे हास्य नो कषायका आस्रव होता है। नाना प्रकार कीड़ा, विचित्र कीड़ा, देशादिके प्रति अनौत्सुक्य, व्रत शील आदिमें अरुचि आदि रति नोकषायके आस्रव हेतु हैं। दूसरोंमें अरति उत्पन्न करना, रतिका विनाश करना, पापशीलजनों For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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