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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना का संसर्ग, पाप क्रियाओंको प्रोत्साहन देना आदि अरति नोकषायके आस्रव के कारण हैं। अपने और दूसरे में शोक उत्पन्न करना, शोकयुक्तका अभिनन्दन, शोकके वातारवणमें रुचि आदि शोक नोकषायके आस्रवके कारण हैं। स्व और परको भय उत्पन्न करना, निर्दयता, दूसरोंको त्रास देना, आदि भयके आस्रवके कारण है। पुण्यक्रियाओंमें जुगुप्सा करना, पर निन्दा आदि जुगुप्साके आस्रवके कारण हैं । परस्त्रीगमन, स्त्रीके स्वरूपको धारण करना, असत्य वचन, परवञ्चना, परदोष दर्शन,वृद्ध होकर भी युवकों जैसी प्रवृत्ति करना आदि स्त्रीवेद के आस्रवके हेतु हैं। अल्पक्रोध मायाका अभाव गर्वका अभाव, स्त्रियोंमें अल्प आसक्ति, ईर्षाका न होना, राग वर्धक वस्तुओं में अनादर, स्वदार सन्तोष परस्त्रीत्याग आदि पुबेदके आस्रवके कारण हैं। प्रचुर कषाय, गुह्येन्द्रियोंका विनाश, परांगनाका अपमान, स्त्री या पुरुषोंमें अनंग क्रीड़ा, व्रतशीलयुक्त पुरुषोंको कष्ट उत्पन्न करना, तीव्रराग आदि नपुंसक वेदनीय नोकषायके आस्रवके हेतु है। नरकाय--बहुत आरम्भ और बहुपरिग्रह नरकायका आस्रव कराते हैं। मिथ्यादर्शन, तीव्रराग, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण, निःशीलता, तीव्र वैर, परोपकार न करना, यतिविरोध. शास्त्रविरोध, कृष्णलेश्या रूप अतितामसपरिणाम, विषयोंमें अतितष्णा, रौद्र ध्यान, हिसादि कर कार्यों में प्रवत्ति, बाल वृद्ध स्त्री हत्या आदि क्रूरकर्म नरकायुके आस्रवके कारण होते हैं।। तिर्यंचायु-छल कपट आदि मायाचार, मिथ्या अभिप्रायसे धर्मोपदेश देना, अधिक आरम्भ, अधिक परिग्रह, निःशीलता, परवञ्चकता, नील लेश्या और कपोत लेश्या रूप तामस परिणाम । मरणकाल आर्तध्यान, क्रूरकर्म, भेद करना, अनर्थोद्भावन, सोना चांदी आदिको खोटा करना, कृत्रिम चन्दनादि बनाना, जाति कुल शीलमें दूषण लगाना, सद्गुणोंका लोप, दोष दर्शन आदि पाशव भाव तिर्यंचायुके आस्रवके कारण होते हैं। मनुष्याय--अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, विनय, भद्र स्वभाव, निष्कपट व्यवहार, अल्पकषाय, मरणकालमें सक्लेश न होना, मिथ्यात्वी व्यक्तिमें भी नम्रभाव, सुखबोध्यता, अहिंसकभाव, अल्पक्रोध, दोषरहितता, क्रूरकर्मोंमें अरुचि, अतिथिस्वागततत्परता, मधुर वचन, जगत्में अल्प आसक्ति, अनसूया, अल्पसंक्लेश, गुरु आदि की पूजा, कापोत और पीतलेश्याके राजस और अल्प सात्विक भाव, निराकुलता आदि मानवभाव मनुष्यायुके आस्रवके कारण होते हैं। स्वाभाविक मृदुता और निरभिमान वृत्ति मनुष्यायुके आरबके असाधारण हेतु है। देवायु--सराग संयम अर्थात् अभ्युदयकी कामना रहते हुए संयम धारण करना, श्रावकके व्रत, समता पूर्वक कर्मोका फल भोगनारूप अकामनिर्जरा, सन्यासी एकदण्डी त्रिदण्डी परमहंस आदि तापसोंका बालतप और सम्यक्त्व आदि सात्त्विक परिणाम देवायुके आस्रवके कारण होते हैं। नाम कर्म-मन बचन कायकी कुटिलता, बिसंबादन अर्थात श्रेयोमार्गमें अश्रद्धा उपन्न करके उससे च्युत करना, मिथ्यादर्शन, पैशुन्य, अस्थिरचित्तता, झूठे बांट तराजू गज आदि रखना, मिथ्या साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रसंसा, परद्रव्य ग्रहण, असत्यभाषण, अधिक परिग्रह, सदा विलासीवेश धारण करना, रूपमद, कठोरभाषण, असभ्य भाषण, आक्रोश, जान बूझकर छैल छबीला वेश धारण करना, वशीकरण चूर्ण आदिका प्रयोग, मन्त्र आदिके प्रयोगसे दूसरोंमें कुतुहल उत्पन्न करना, देवगरु पूजाके बहाने गन्ध माला धप आदि लाकर अपने रागकी पुष्टि करना, पर विडम्बना, परोपहास, इंटोंके भट्टे लगाना, दावानल प्रज्वलित कराना, प्रतिमा तोड़ना, मन्दिर ध्वंस, उद्यान उजाड़ना, तीव्र क्रोध मान माया लोभ, पापजीविका आदि कार्योसे अशभ शरीर आदिक उत्पादक अशभ नाम कर्म का आसव होता है। इनसे विपरीत मन वचन कायकी सरलता, ऋज प्रवृत्ति आदिसे सुन्दर शरीरोत्पादक शुभनाम कर्मका आस्रव होता है। तीर्थकर नाम-निर्मल सम्यग्दर्शन, जगद्धितैषिता, जगत्के तारनेकी प्रकृष्ट भावना, विनयसम्पनता, निरतिचार शीलवतपालन, निरन्तर ज्ञानोपयोग, संसार दुःखभीरुता, यथा शक्ति तप, यथाशक्ति त्याग, For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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