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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
रूपमें बड़े बड़े मुनियोंको भी स्वरूपस्थित नहीं होने देती। यह राग द्वेष रूप द्वन्द्व ही समस्त अनर्थोंका मूल हेतु है। यही प्रमुख आम्रव है। न्यायसूत्र, गीता और पालीपिटकोंमें भी इसी द्वन्द्वको ही पापमल बताया है । जैन शास्त्रोका प्रत्येक वाक्य कषायशमन का ही उपदेश देता है। इसीलिए जैनमतियाँ वीतरागता और अकिञ्चनताकी प्रतीक होती है। उसमें न द्वेष का साधन आयुध है और न रागका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे तो परम वीतरागता और अकिंचनताका पावन सन्देश देती हैं।
इन कषायोंके सिवाय-हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा (ग्लानि ) स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुसक वेद यो ९ नोकषायें हैं। इनके कारण भी आत्मामें विकार परिणति उत्पन्न होती है । अत: य भी आश्व में
योग-मन वचन और काय के निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे योग कहत है। योगकी साधारण प्रसिद्धि चित्तवत्तिनिरोध रूप ध्यानके अर्थ में है गर जैन परम्पराम चकिकन वचन और कायसे होनेवाली आत्माकी क्रिया कर्मपरमाणोंसे योग अर्थात् सम्बन्ध करानेमें कारण होती है. अतः इसे योग कहते हैं और योगनिरोधको ध्यान कहते हैं। आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशाम परिस्पन्द्र होता है। मन वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है । यह क्रिया जीवन्मुक्तको भी बराबर होती है। परमुक्तिसे कुछ समय पहिले अयोगकेवलि अवस्थामें मन वचन कायकी क्रियाका निरोध होता है और आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है। सिद्ध अवस्थामें आत्माके पूर्ण शुद्ध रूपका आविर्भाव होता है न उसमें कर्मजन्य मलिनता रहती और न योगजन्य चंचलता ही। प्रधानरूपसे आसव तो योग ही है। इसीके द्वारा कर्मोंका. आगमन होता है। शुभ योग पुण्यकर्मका आलव कराता है तथा अशुभ योग पापकर्म के आस्रवका कारण होता है। सबका शुभचिन्तन तथा अहिंसक विचारधारा शुभ मनोयोग है । हित मित प्रिय सम्भाषण शुभ वचनयोग है। परको वाधा न देनेवाली यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभ काय योग है । इस तरह इस आस्र व तत्त्व का ज्ञान मुमुक्षु को अवश्य ही होना चाहिए। साधारण रूपन यह तो उसे ज्ञात कर ही लेना चाहिए कि हमारी अमुक प्रवृत्तियोंसे शुभारंब होता है और अमुक प्रवृत्तियोंले अशुभास्रव, तभी वह अनिष्ट प्रवृत्तियोंसे अपनी रक्षा कर सकेगा।
___ सामान्यतया आस्रव दो प्रकारका होता है-एक तो कपायानजित योगसे होनेवाला साम्पगयिक आस्रव जो बन्धका हेतु होकर संसारकी वृद्धि करता है तथा दुसरा केवल योगसे होने वाला ईयापथ आस्रव जो कषाय न होनेसे आगे बन्धनका कारण नहीं होता। यह आस्रव जीवन्मुक्त महात्माओंके वर्तमान सरीरसम्बन्ध तक होता रहता है। यह जीवस्वरूपका विघातक नहीं होता।
प्रथम साम्परायिक आस्रव कपायानुरंजित योगसे होने के कारण वन्धक होना है। कपाय और योग प्रवृत्ति शुभरूप भी होती है और अशुभरूप भी। अत: शुभ और अशुभ योगके अनुसार आन्नब भी शुभान्त्र या पुण्यास्रव और अशुभास्रव अर्थात् पापासबके भेद से दो प्रकारका हो जाता है। साधारणतया साना वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य कर्म हैं और शेष ज्ञानावरण आदि घातिया और अपातियाँ कर्मप्रकृतियाँ पापरूप हैं। इस आस्रवमें कषायोंके तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अनातभाव, आधार. और शक्ति आदिकी दष्टिसे तारतम्य होता है । संरम्भ (संकल्प) सामारंभ ( सामग्री जुटाना) आरम्भ (कार्यकी शुरूआत) कृत (स्वयं करना) कारित (दूसरोंसे कराना) अनुमत (कार्यकी अनुमोदना करना) मन वचन काय योग और क्रोध मान माया लोभ ये चार कषाएँ परस्पर मिलकर ३४३४३४४४१०८. प्रकारके हो जातं है। इनसे आस्रव होता है। आगे ज्ञानावरण आदि काँम प्रत्येकके आस्रव कारण बताते हैं
ज्ञानाबरण दर्शनावरण-ज्ञानी और दर्शनयुक्त पुरुषकी या ज्ञान और दर्शन की प्रशंसा मुनकर भीतरी द्वेषवश उनकी प्रशंसा नहीं करना तथा मनमें दुष्टभावोंका लाना, (प्रदोष) ज्ञानका और ज्ञानके साधनोंका अपलाप करना (निलव) योग्य पात्रको भी मात्सर्यवश ज्ञान नहीं देना, ज्ञान में विघ्न डालना. दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानकी अविनय करना, ज्ञानका गुण कीर्तन न करना, सम्यग्ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहकर ज्ञानके नाशका अभिप्राय रखना आदि यदि ज्ञानके सम्बन्धमें हैं तो ज्ञानावरण के आसबके कारण होते है और
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