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.२०.] श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद और किसी किसी पदार्थ के धारणा सहित चारों पाये जाते हैं। किन्तु परिपूर्ण ज्ञान अवाय के होने पर ही समझा जाता है।
शंका---'व्यञ्जन का अवग्रह हो होता है। इतना सचित करने मात्र से यह ज्ञात हो जाता है कि व्यञ्जन के सिवा शेष सब पदार्थों के अवग्रह आदि चारों होते हैं। फिर 'अर्थस्य' सत्र की रचना किस लिये की
समाधान-बहु आदि अर्थ के भेद हैं यह दिखलाने के लिये 'अर्थस्य' सूत्र की रचना की गई है।
शका-क्या ये बहु आदि बारह भेद व्यञ्जन के भी प्राप्त होते हैं ?
समाधान-अवश्य प्राप्त होते हैं, क्योंकि पदार्थों को व्यञ्जनरूप इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने की अपेक्षा से माना गया है। जब स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियां पदार्थों को प्राप्त होकर जानती हैं तब वे पदार्थ प्रारम्भ में व्यञ्जनरूप माने जाते हैं अन्यथा नहीं यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका---इस प्रकार मतिज्ञान के कुल भेद कितने हैं ? समाधान-तीनसौ छत्तीस । शंका-सो कैसे ?
समाधान-दो सौ अठासी तो पहले ही बतला आये हैं। उनमें व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद मिला देने पर कुल तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते है ॥ १८-१९॥
- श्रुतज्ञानका स्वरूप और उसके भेद----
श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । वह दो प्रकार का, अनेक प्रकार का और बारह प्रकार का है।
सूत्र में आये हुए पूर्व शब्दका अर्थ कारण है। इसलिये श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है इसका यह मतलब है कि मतिज्ञान के निमित्त से