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________________ तत्वार्थसूत्र [ १.१८.१९. शंका- इस मतभेद के रहते हुए अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह का सुनिश्चित लक्षण क्या माना जाय ? समाधान- दोनों ही लक्षणों के मानने में कोई आपत्ति नहीं है । शंका-सो कैसे ? ३६ समाधान - विवक्ष्याभेद से । वीरसेन स्वामी प्राप्त अर्थ के प्रथम ग्रहणमात्र को व्यंजनावग्रह रूप से विवक्षित करते हैं और पूज्यपाद स्वामी केवल अव्यक्त प्राप्त अर्थ के ग्रहण को व्यंजनाग्रह मानते हैं । शंका --- कितने ही विद्वान् क्षिप्रग्रहण को अर्थावग्रह और अक्ष ग्रहण को व्यञ्जनवग्रह मानते हैं । सो उनका ऐसा मानना क्या उचित है ? समाधान- नहीं शंका- क्यों ? समाधान - क्यों कि ऐसा मानने पर दोनों ही अवग्रहों के द्वारा बारह प्रकार के पदार्थों का ग्रहण नहीं प्राप्त होता है । इसलिये अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह के वे ही लक्षण मानने चाहिये जिनका निर्देश पीछे किया जा चुका है । शंका - मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से ही उत्पन्न होता है या इसमें व्यतिक्रम भी देखा जाता है ? समाधान - मतिज्ञान अवग्रह ईहा आदि के क्रम से ही होता है । इसमें व्यतिक्रम का होना सम्भव नहीं है । शंका - पदार्थ का जब भी मति ज्ञान होता है तब अवग्रह आदि चारों का होना क्या आवश्यक है ? समाधान -- नहीं | शंका- तो फिर क्या व्यवस्था है ? समाधान -- कोई ज्ञान अवग्रह होकर छूट जाता है । किसी पदार्थ ग्रह और ईहा दो होते हैं। किसी के वाय सहित तीन होते हैं
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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