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________________ १.१८.१९.] अवग्रह का दूसरा भेद ३५ अवग्रह का दूसरा भेदव्यजनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥ व्यञ्जन का अवग्रही होता है। किन्तु वह चक्षु और मन से नहीं होता। पूर्व सूत्र में अर्थ का पारिभाषिक अर्थ बतलाते समय हम व्यंजनका भी पारमाषिक अर्थ बतला आये है। जब तक पदार्थ व्यंजन रूप . रहता है तब तक उसका अवग्रह ही होता है जो उक्त सूत्रों का नेत्र और मन से नहीं होता । नेत्र प्राप्तअर्थ को नहीं आराय जानता इसलिये इससे व्यंजनाग्रह नहीं होता । इसी प्रकार मन भी प्राप्त अर्थ को नहीं जानता इसलिये इससे भी व्यञ्जनाग्रह नहीं होता। यह धवला टीका के अनुसार उक्त सूत्रों का भाव है। किन्तु पूज्यपाद स्वामी और अकलंक देव प्राप्त अर्थ के प्रथम प्रहरण मात्र को व्यंजनावग्रह नहीं मानते। उन्होंने प्राप्त अर्थ को व्यंजनावग्रह का विषय न मान कर अव्यक्त शब्दादिक को ही व्यंजनावग्रह _का विषय माना है। उन्होंने लिखा है कि जैसे मिट्टी अन्य मत का निर्देश __ के नूतन सकोरे पर पानी की एक दो बूंद डालने मात्र से वह गीला नहीं होता। किन्तु पुनः पुनः सोंचने पर वह अवश्य ही गीला हो जाता है। लसी प्रकार जब तक स्पर्शन, रसन, घ्राण, और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय स्पृष्ट होकर भी अव्यक्त रहता है, तब तक उसका व्यंजनाग्रह ही होता है किन्तु उसके व्यक्त होने पर अर्थावग्रह होता है। उनके मत से प्राप्त अर्थ के अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह में यही अन्तर है। व्यक्त ग्रहण का नाम अथोवग्रह है और अव्यक्त ग्रहण का नाम व्यंजनावग्रह।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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