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३४ तत्त्वार्थसूत्र
[१.१७. और ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं तब इनका विषय उभयात्मक वस्तु न मानकर पर्याय मानना चाहिये ?
समाधान-इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण तो वस्तु का ही होता है किन्तु उनमें अलग-अलग धर्म को अभिव्यक्त करने की योग्यता होने से प्रत्येक इन्द्रिय का विषय अलग-अलग धर्म कहा जाता है। उदाहरणार्थ-घ्राण इन्द्रिय से गन्ध का संयोग न होकर सुगन्ध या दुर्गन्धवाले परमाणुओं का ही संयोग होता है। किन्तु घ्राण इन्द्रिय में गन्ध को अभिव्यक्त करने के योग्यता होने से इसका विषय गन्ध कहा जाता है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में जानना चाहिये।
शंका-नय ज्ञान से इन्द्रिय ज्ञान में क्या अन्तर है, क्योंकि एक धर्म द्वारा वस्तु को विषय करना नय है और पूर्वोक्त कथन से इन्द्रिय ज्ञान भी इसी प्रकार का प्राप्त होता है। यहाँ भी स्पर्श श्रादि एक-एक धर्म द्वारा वस्तु का बोध होता है ? ।
समाधान-नय ज्ञान विश्लेषणात्मक है इन्द्रिय ज्ञान नहीं, यही इन दोनों में अन्तर है।
अन्य लोग इन्द्रियों के साथ केवल रूपादि गुणों का सन्निकर्ष मानते हैं। किन्तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि रूपादि
__ गुण अमूर्त हैं। उनके साथ इन्द्रियों का सन्निकर्ष न
" होकर रूपादि गुणवाले पदार्थों के साथ ही इन्द्रियों का सन्निकर्ष होता है। यद्यपि 'मैंने रूप देखा, गन्ध सूंघा' ऐसा व्यवहार होता है, किन्तु यह व्यवहार औपचारिक है। वास्तव में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण तो अर्थ का ही होता है, परन्तु रूपादिक अर्थ से कथंचित् अभिन्न होते हैं इसलिये अर्थ का ग्रहण होने से इनका भी ग्रहण बन जाता है ।। १७॥
अन्य