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________________ १.१७.] अवग्रह श्रादि चारों का विषय होता है कि चक्षु और मन का विषय तो अर्थ कहलाता ही है। शेष चार इन्द्रियों का विषय भी यदि व्यक्त होता है तो वह भी अर्थ कहलाता है । यद्यपि पूज्यपाद स्वामी ने अर्थ के स्वरूप का निर्देश करते समय प्रमुखता से चक्षु इन्द्रिय का ही नाम लिया है जिससे ज्ञात होता है कि पूज्यपाद स्वामी स्वयं एतत्प्रकारक विषय को अर्थ मानते हैं। तथापि उन्होंने व्यंजन का लक्षण लिखते समय शब्दादि विषय के विशेषण रूप से जो अव्यक्त पद का निर्देश किया है सो इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे व्यक्त शब्दादिक को भी अर्थ की कोटि में सम्मिलित करते हैं। किन्तु वीरसेन स्वामी अर्थ और व्यंजन के उक्त लक्षण से सहमत नहीं हैं। वीरसेन स्वामी चक्षु और मन को केवल अप्राप्यकारी मानते हैं और शेष चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी दोनों प्रकार __का मानते हैं। उनका मत है कि स्पर्शन, रसन, प्राण अर्थ की अन्य 4 और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को छु परिभाषा " कर जानती हैं यह तो सर्व-विदित है। किन्तु ये चक्षु और मन के समान अप्राप्त अर्थ को भी विषय करती हैं। इस कारण से उन्होंने अर्थ और व्यंजन की परिभाषा करते हुए केवल अप्राप्त विषय को अर्थ और प्राप्त अर्थ के प्रथम ग्रहण को व्यंजन बतलाया है। ____ यद्यपि यहाँ पर इन्द्रियों के विषय को अर्थ और व्यंजन इस प्रकार दो भागों में बाँट दिया गया है पर यह दोनों प्रकार का विषय सामान्य र और विशेष उभयरूप ही होता है। प्राशय यह है अर्थ की कि इन्द्रिय और मन न केवल सामान्य को ही विषय उभयात्मकता __ करते हैं और न केवल विशेष को ही विषय काते हैं किन्तु सामान्य और विशेष उभयात्मक वस्तु को ही विषय करते हैं। शंका -जब कि स्पर्शन आदि इन्द्रियों का विषय स्पर्श आदि है
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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