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________________ इस विषय में विशेष ज्ञातव्य इसी प्रकार अनुक्त ग्रहण में भी पहले अन्य निमित्तका ग्रहण हो और फिर उस पर से अभिप्राय गत पदार्थ का ग्रहण हो यह अर्थ इष्ट नहीं, है क्यों कि ऐसा अर्थ करने पर वही दोष आता उक्त-अनुक्त त है जो अनिःमृत मतिज्ञान के विशेष व्याख्यान के विचार समय बतला आये हैं । मुख्यतया अनुक्त का मतलब ऐसे पदार्थ से है जिसके विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है उसको अवग्रह आदि के क्रम से जानना अनुक्त मतिज्ञान है। वीरसेन स्वामी धवला में इसके विषय में लिखते हैं कि विरक्षित इन्द्रिय द्वारा अपने विषय को ग्रहण करने के समय ही अन्य विषय का ग्रहण हो जाना अनुक्त प्रत्यय है। जैसे जिस समय चक्षु से नमक या मिसरी को जानते हैं उसी समय उसके रस का ज्ञान होना या जिस समय । दीपक को देखा उसी समय उसके स्पर्श का ज्ञान होना अनुक्त ज्ञान है। ___ अब श्रोत्र इन्द्रिय की अपेक्षा १२ प्रकार के उक्तभेद घटित करके बतलाते हैं___ तत, वितत, घन और सुशिर आदि शब्दों को सुन कर एक साथ उनका ज्ञान करना बहुज्ञान है । इनमें से कुछ शब्दों को सुनकर उनका ज्ञान करना अल्पज्ञान है । तत आदि नाना प्रकार के उक्त पदार्थों के : शब्दों को उनकी अनेक जातियों के साथ जानना बहुज्ञान का खुलासा "" विध ज्ञान है। एकविध इससे उलटा है। शीघ्रता से शब्द को ग्रहण करना क्षिप्र ज्ञान है या अति शीघ्रता से उच्चारित शब्दों को जान लेना क्षिप्रज्ञान है। अक्षिन इससे उलटा है। शब्दों के पूरण उच्चारण न करने पर भी पूरा समझ लेना अनिःसृत ज्ञान है। निःसृत इससे उलटा है। शब्दोच्चारण करने के सन्मुख होने पर अभिप्राय से ही समझ लेना अनुक्तज्ञान है । उक्त इससे उलटा हैं । कहे गये अर्थ को जैसे प्रथम समय में ग्रहण किया है उसी प्रकार द्वितीयादि समयों में ग्रहण करना ध्रुवज्ञान है। अध्रुव इससे उलटा है। जैसे श्रोत्र इन्द्रिय की
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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