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तत्त्वार्थसूत्र
[ १.१६.
११ ध्रुव - कुछ काल तक एक रूप से ग्रहण करते रहना या चिरकाल तक अवस्थित रहनेवाले पदार्थ । पहले अर्थ में ज्ञान गत धर्म का पदार्थ में आरोप किया गया है और दूसरे अर्थ में व्यञ्जन पर्याय कावस्थितना विवक्षित है ।
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० उक्त – कहा गया पदार्थ ।
१२ अध्रुव - ध्रुव का उलटा ।
इन बारह प्रकार के विषयों का पाँच इन्द्रिय और मन से मह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान होता है यह अब तक के कथन का तात्पर्य है ।
इस विषय में विशेष ज्ञातव्य ---
एक देश प्रकट हुए पदार्थ के ज्ञान से पूरे पदार्थ का ज्ञान होना निःसृतग्रहण है । अनिःसृत मतिज्ञान का ऐसा अर्थ करने पर वह मतिज्ञान नहीं ठहरेगा, क्योंकि यहाँ एकदेश निःसृत निःसृत प्रकट हुए पदार्थ का ज्ञान पूरे पदार्थ के ज्ञान में विचार कारण पड़ा, इसलिये यह पूरे पदार्थ का ज्ञान श्रुत ज्ञान हुआ, अतः अनिःसृत मतिज्ञान का इस प्रकार अर्थ करना चाहिये कि पदार्थ का एकदेश योग्य सन्निकर्ष में अवस्थित होने पर सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान हो जाना अनिःसृत मतिज्ञान है । जैसे हाथी की सूँड सामने आते ही केवल सूंड का ज्ञान न होकर सूँड सहित पूरे हाथी का ज्ञान होना अनिःसृत मतिज्ञान है । तात्पर्य यह है कि पहले प्रकट हिस्से का ज्ञान हो और फिर उसके आधार से कट अंश का ज्ञान हो यह अर्थ अनिःसृत मतिज्ञान में इष्ट नहीं ।
उल्लेख है | वहां संदिग्ध का अर्थ निश्चित और संदिग्ध का अर्थ अनिश्चित किया है । अनुक्त उक्त का वही अर्थ किया है जो दिगम्बर ग्रन्थों में पाया जाता है । देखो पं० सुखलाल जी का तत्त्वार्थसूत्र टिप्पनी पृ० २८ ।