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________________ ४३२ तत्त्वार्थसूत्र [ ९. १९-२० प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छ: प्रकार का आभ्यन्तर तप है। विषयों से मन को हटाने के लिए और राग द्वेप पर विजय प्राप्त करने के लिए जिन जिन उपायों द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मन को तपाया जाता है अर्थात् इन पर विजय प्राप्त की जाती है वे सभी उपाय तप हैं। इसके बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद हैं। जिसमें बाह्य द्रव्य की अपेक्षा होने से जो दूसरों को दोख पड़े वह बाह्य तप है। तथा इसके विपरीत जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो और जिसमें बाह्य द्रव्यों की प्रधानता न होने से जो सबको न दीख पड़े वह याभ्यन्तर तप है। बाह्य तप का फल मुख्यतया आभ्यन्तर तप की पुष्टि करना है क्योंकि ऐसा कायक्लेश जिससे मनोनिग्रह नहीं होता तप नहीं है। इनमें से प्रत्येक के छह छह भेद हैं जिनका नाम निर्देश सूत्रकार ने स्वयं किया है। अशन अर्थात् भोजन का त्याग करना अनशन है। यह संयम की व पुष्टि, राग का उच्छेद, कर्मका विनाश और ध्यान बाह्य तप को प्राप्ति के लिये किया जाता है। २ भूखसे कम खाना अवमौदर्य तप है । मुनि का उत्कृष्ट आहार बत्तीस ग्रास बतलाया गया है इससे कम खाना अवमौदर्य है। यह संयम को जागृत रखने, दोषों के प्रशम करने और सन्तोष तथा स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिये धारण किया जाता है। ३ एक घर या एक गली में आहार की विधि मिलेगी तो आहार लूँगा अन्यथा नहीं इत्यादि रूप से वृत्ति का परिसंख्यान करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह चित्त वृत्ति पर विजय पाने और आसक्ति को कम करने के लिये धारण किया जाता है। ४ घी आदि वृष्य रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है । यह इन्द्रियों और निद्रा पर विजय पाने तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय की सिद्धि के लिये धारण किया जाता है। ५ एकान्त शून्य घर आदि में सोना
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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