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चारित्र
९. १६-२०.] तप का वर्णन
इनमें प्रथम द्रव्यार्थिक नयका और दूसरा पर्यायार्थिक नय का छेदोपस्था
विषय है। तत्त्वतः इनमें अनुष्ठानकृत कोई भेद
" नहीं है। केवल विवक्षाभेद से ये दो चारित्र हैं। जो तीस वर्ष तक सुखपूर्वक घर में रहा, अनन्तर दीक्षा लेकर परिहारविशुद्धि
जिसने तीर्थकरके पादमूल में प्रत्याख्यानपूर्वका अध्य- यन किया उसे परिहारविशुद्धिचारित्र की प्राप्ति
होती है। प्राणियों की हिंसा का परिहार होने से यह चारित्र विशुद्धि को प्राप्त होता है इसलिए परिहारविशुद्धिचारित्र कहलाता है।
जिसमें क्रोध आदि अन्य कषायों का तो उदय होता नहीं किन्तु सूक्ष्मसाम्परायचारित्र
- केवल अति सूक्ष्म लोभ का उदय होता है वह
- सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है। यह केवल दसवें गुणस्थान में होता है। जिसमें किसी भी कपाय, का उदय न होकर या तो वह उप
र शान्त रहता है या क्षीण वह यथाख्यात चारित्र है।
' वह ग्यारहवें गुणस्थान से होता है। यह पाँचों प्रकार का चारित्र आत्मा की स्थिरता का कारण होने से संवर का प्रयोजक है ॥१०॥
तप का वर्णनअनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छः प्रकार का बाह्य तप है।
यथाख्यातच