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________________ ९. २१-२४ ] प्रायश्चित आदि तपों के भेद व उनका नाम निर्देश ४३३ बैठना विविक्तशय्यासन तप है। यह निर्वाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिये धारण किया जाता है। आतापन योग, वृक्ष के मूल में निवास करना, खुले मैदान में सोना या बहुत प्रकार की आसनों आदि का लगाना आदि कायक्लेश तप है । यह देह को सहशील बनाने के लिये, सुख विषयक आसक्ति को कम करने के लिये और प्रवचन की प्रभावना करने के लिये धारण किया जाता है । १ जिससे प्रमादजनित दोषों का शोधन किया जाता है वह प्रायश्चित्त है । २ ज्ञान आदि का बहुमान करना और पूज्य पुरुषों में आदर भाव रखना विनय है । ३ अपने शरीर द्वारा या अन्य साधनों द्वारा उपासना करना अर्थात् सेवा शुश्रूषा करना वैयावृत्य है । ४ आलस्य का त्याग कर निरन्तर ज्ञानाभ्यास करना स्वाध्याय है । ५ अहंकार और ममकार का त्याग करना व्युत्सर्ग है । ६ चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है । श्रभ्यन्तर तप यह बारहों प्रकार का तप संवर का कारण होकर भी प्रमुखता से निर्जरा का कारण है । स्वावलम्बन की दृष्टि से इसका जीवन में बड़ा महत्त्व है ।। १९-२० ॥ प्रायश्चित्त आदि तपों के भेद व उनका नाम निर्देश - नवचतुर्दशपञ्चद्विमेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१ ॥ आलोचनप्रतिक्रमण तदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्च्छेदपरिहारो पस्थापनाः ।। २२ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ श्राचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष ग्लानगणकुल संघ साधुमनो ज्ञानाम् ॥ २४ ॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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