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६. १.] संवर का स्वरूप
४०६ पर दृष्टि रखना दूसरी बात है। यहाँ हम इस तत्त्व का विस्तृत व्याख्यान नहीं करना चाहते । केवल प्रसंगवश इतना संकेत मात्र किया है, क्योंकि अधिकतर विद्वान् गुणस्थानों के स्वरूप का निरूपण करते हुए प्रायः उत्क्रान्तिवाद में प्रयुक्त हुए शब्दों की रोचकतावश वस्तुस्थिति को भूल जाते हैं।
गुणस्थान चौदह हैं-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
मिथ्यादर्शन का निर्देश पहले कर आये हैं। वह जिसके पाया जाता हैं वह मिथ्यादृष्टि है। जो सम्यक्त्व ( उपशम सम्यक्त्व ) से च्युत होकर भी मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त हुआ है। अर्थात् जिसकी दृष्टि न सम्यक्त्व रूप है, न मिथ्यात्व रूप और न उभयरूप है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व और मिथ्यात्व उभयरूप है वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। अविरत होकर जो सम्यग्दृष्टि है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है। जो स्थावर हिंसा से विरत न होकर भी त्रसहिंसा से. विरत है वह देशविरत है। जिसके प्रमाद के साथ संयमभाव पाया जाता है वह प्रमत्तसंयत है। जिसके प्रमाद के अभाव में संयमभाव पाया जाता है वह अप्रमत्तसंयत है। इसके दो भेद हैं-स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । जो प्रमत्त से अप्रमत्त और अप्रमत्त से प्रमत्त होता रहता है वह स्वस्थान अप्रमत्तसंयत है और जो आगे बढ़ने में सफल होता है वह सातिशय अप्रमत्तसंयत है। इस सातिशय अप्रमत्तसंयत के अधःकरण परिणाम होते हैं । अधःकरण का अर्थ है नीचे के परिणाम । आशय यह है कि जहाँ काल की अपेक्षा आगे के परिणाम पीछे के परिणामों के समान भी होते हैं वे अधःकरण परिणाम हैं । जहाँ पहले नहीं प्राप्त हुए ऐसे परिणाम प्राप्त होते हैं उसे