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________________ ४०० तत्त्वार्थसूत्र [६. १. विकास कहा जाता है वह उत्क्रान्ति का पर्यायान्तर है पर हम प्राध्यात्मिक विकास की इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं, क्योंकि साधारणतः गुणस्थान विचार में जो सरणी स्वीकार की गई है उत्क्रान्तिवाद में उसका अभाव दिखाई देता है। उत्क्रान्तिवाद में काल क्रम से क्रमिक विकास लिया जाता है। ऐसा क्रमिक विकास गुणस्थान प्रकरण में कथमपि इष्ट नहीं है। हम देखते हैं कि जो जीव योग्य सामग्री के मिलने पर आगे के गुणस्थानों को प्राप्त होता है वह उस सामग्री के अभाव में पुनः पिछले गुणस्थानों में लौट जाता है। परन्तु उत्क्रान्तिवाद का अभिप्राय इससे सर्वथा भिन्न है। उत्क्रान्तिवादियों का मत है कि प्रत्येक वस्तु का विकास क्रम से हुआ है । उदाहरणार्थ सुदूर पूर्व काल में मनुष्य बन्दर या ऐसी ही किसी शक्ल में था। परिस्थितियों से लड़ते-लड़ते वह इस अवस्था को प्राप्त हुआ है। किन्तु जैनदर्शन इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं करता। उसके मत से जिन वस्तुओं का निर्माण मनुष्य करता है उनमें उत्तरोत्तर सुधार भले ही बन जाय पर सभी कार्यों का निर्माण इसी सिद्धान्त पर आधारित नहीं माना जा सकता । अनन्त काल पहले मनुष्य की जो शक्ल थी या वह अपनी आभ्यन्तर योग्यता जितनी और जिस क्रम से घटा बढ़ा सकता था वही क्रम आज भी चालू है। पूर्व काल में वह बहुत ही अविकसित अवस्था में था और वर्तमान काल में उसमें बड़ा विकास हो गया है यह बात नहीं है। किसी बात का निर्देश करते समय हमें वस्तुस्थिति पर ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। दार्शनिक जगत् में ऐसी गल: तियाँ क्षम्य नहीं मानी जा सकती हैं। यहाँ हमारा अभिप्राय प्राचीनता के आग्रह से नहीं है और न हम नवीनता के विरोधी ही हैं। हमारा अभिप्राय केवल इतना ही है कि हमें कार्यकारण भाव का समग्र भाव से विश्लेषण कर किसी तत्त्व की स्वीकृति देनी चाहिये। अच्छे व हृदयग्राही शब्दों का प्रयोग करना दूसरी बात है और वस्तु स्थिति
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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