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________________ नववाँ अध्याय अब क्रमप्राप्त संवर और निर्जरा तत्त्व का निरूपण करते हैं संबर का स्वरूपआस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ आस्रव का निरोध संवर है। जिस निमित्त से कर्म बंधते हैं वह आस्रव है, आस्रव की ऐसी व्याख्या पहले कर आये हैं। उस आस्रव का रुक जाना संवर है। यद्यपि यहाँ आस्रव के निरोध को ही संवर कहा है पर इसका यह आशय है कि आस्रव का निरोध होने पर संवर होता है। आस्रव का निरोध कारण है और संवर कार्य है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके आस्रव के निरोध को संबर कहा है। इसके दो भेद है-द्रव्य संवर और भावसंवर। संसार की निमित्तभूत क्रिया को निवृत्ति होना भावसंवर है और कर्म पुद्गल का न आना द्रव्यसंवर है। मुख्यतया कर्मबन्ध के कारण पाँच हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये यथायोग्य विवक्षित गुणस्थान तक होते है आगे नहीं होते। ___ गुणों के स्थान गुणस्थान कहलाते हैं। प्रकृत में गुण जीव के वे परिणाम हैं जो कर्म निमित्त सापेक्ष होते हैं। इनसे संसारी जीव विविध अवस्थाओं में विभक्त हो जाते हैं। प्रकृत में इन्हीं विविध अवस्थाओं की गुणस्थान संज्ञा है। यद्यपि वर्तमान काल में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इन गुणस्थानों का विवेचन किया जाता है। जिसे वर्तमान में आध्यात्मिक
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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