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________________ ४१० तत्त्वार्थसूत्र [९.१. अपूर्वकरण कहते हैं। इसमें प्रति समय अपूर्व अपूर्व परिणाम प्राप्त होते हैं । जहाँ एक समयवालों के एक से परिणाम होते हैं उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। जहाँ लोभ कषाय सूक्ष्म रह जाती है उसे सूदन साम्पराय कहते हैं। जहाँ मोह उपशम भाव को प्राप्त हो जाता है उसे उपशान्तमोह कहते हैं। जहाँ मोह का सर्वथा क्षय हो जाता है उसे क्षीणमोह कहते हैं। जहाँ केवलज्ञान के साथ योग पाया जाता है उसे सयोगकेवली कहते हैं और जहाँ केवलज्ञान तो है पर योग का अभाव हो गया है उसे अयोगकेवली कहते हैं। ___ इसमें से प्रथम गुणस्थान में बन्ध के पाँचों हेतु पाये जाते हैं, इसलिये यहाँ सभी कर्मों का आस्रव सम्भव है। मात्र सम्यकत्ल के सद्भाव में आस्रवभाव को प्राप्त होनेवाले तीर्थकर और आहारकद्विक का यहाँ आस्रव नहीं होता। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव हो जाता है इसलिये वहाँ मिथ्यात्व के निमित्त से आस्रवभाव को प्राप्त होनेवाले १६ कर्मों का संवर हो जाता है। वे १६ कर्म ये हैंमिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, हुंडसंस्थान, असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारणशरीर । इनका आगे के किसी भी गुणस्थान में आस्रव नहीं होता। दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के उदय से प्राप्त होनेवाली अविरति पाई जाती है और तीसरे गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है, इसलिये वहाँ इस निमित्त से आस्रवभाव को प्राप्त होनेवाले २५ कर्मों का संवर हो जाता है। वे २५ कर्म ये हैं-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यञ्चायु, तिर्यंचगति, बीच के चार संस्थान, बीच के चार संहनन, तिथंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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