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________________ ८. ५-१३.] मूलप्रकृति के अवान्तर भेद और उनका नामनिर्देश ३८९ अर्धनाराचसंहनन, कीलितसंहनन और असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन ये छः भेद हैं । वृषभ का अर्थ वेष्टन है। नाराच का अर्थ कीलें है और संहनन का अर्थ हड्डियाँ है। जिस शरीर के वेष्टन, कीलें और हड्डियाँ वज्रमय हों वह वज्रवृपभनाराचसंहनन है। जिस शरीर में कीलें और हड्डियाँ वज्रमय हों किन्तु उन पर वेष्टन न हो वह वचनाराचसंहनन्द है। जिस शरीर में हड्डियाँ कीलों से कोलित हों वह नाराचसंहनन है। जिस शरीर में आधी हड्डियाँ कीलों से कीलित हों और आधी कीलों से कीलित न हों वह अर्धनाराचसंहनन है। जिस शरीर में हड्डियाँ परस्पर कीलित हों वह कीलितसंहनन है। जिस शरीर में हड़ियाँ परस्पर जुड़ी हुई न हों किन्तु शिराओं से बंधी हों वह असम्प्राप्तारपा. टिकासंहनन है । इनमें से जिसको जैसा संहननवाला शरीर मिलता है उसमें वैसा संहनन मिलने में संहनन नामकर्म का उदय निमित्त होता है। शरीरगत शीत आदि आठ स्पर्श, तिक्त आदि पाँच रन, सुरभि आदि दो गन्ध और श्वेत आदि पाँच वर्ण इनके होने में निमित्त भूत कर्म अनुक्रम से स्पर्शनाम, रसनाम, गन्धनाम और वर्णनाम कर्म कहलाते हैं। जिस कर्म का उदय विग्रहगति में जीव का आकार पूर्ववत् बनाये रखने में निमित्त है वह आनुपूर्वी नामकर्म है। इसके नरकगत्यानुपूर्वो, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये चार भेद हैं। प्रशस्त और अप्रशस्त गति का निमित्तभूत कर्म विहायोगति नामकर्म है। इन चौदह प्रकृतियों के अवान्तर भेद होने के कारण ये पिण्ड प्रकृतियाँ कहलाती हैं। इनके कुल अवान्तर भेद ६५ हुए जो उस उस पिण्ड प्रकृति के वर्णन के समय बतलाये ही हैं। यदि बन्धन के पाँच भेद न करके पन्द्रह भेद किये जाते हैं तो उनकी संख्या ७५ हो जाती है। जिस नामकर्म का उदय शरीर के न तो भारी होने में और न हलका होने में निमित्त है वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिस की का
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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