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________________ ८. ४.] प्रकृतिबन्ध के मूल भेदोंका नामनिर्देश ३७५ गुणोंके मूलरूपमें प्रकट न होने देने में निमित्त हैं, इसलिये मूल प्रकृतियों के पाठ क्रम में प्रथम स्थान घातिकर्मोको और दूसरा स्थान अघातिकर्मों को दिया गया है। इस हिसाब से चार घातिकर्मों का नामनिर्देश सर्व प्रथम और उसके बाद अघातिकर्मों का नाम निर्देश करना था पर ऐसा न करके वेदनीय कर्म को जो कि अघाति है तीसरे नम्बर पर और अन्तरायकर्म को जो कि घाति है आठवें नम्बर पर रखा है। सो इसका कारण यह है कि यद्यपि वेदनीय कर्म सुख-दुखका वेदन कराने में निमित्त है तथापि वह मोहनीयसे मिलकर ही सुख दुःखके वेदन कराने में निमित्त होता है इस लिये वेदनीयको मोहनीयके पहले तीसरे नम्बर पर रखा है। और अन्तराय कर्म यद्यपि घाति है पर वह नाम गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मों के साथ मिलकर ही दानादि के न होने में निमित्त होता है अतः अन्तराय कर्मको सबके अन्त में आठवें नम्बर पर रखा है। यह तो दो कर्मों को व्यतिक्रम से क्यों रखा इसका कारण हुआ । अब ज्ञानावरणादि के क्रमसे कर्मों का पाठ क्यों रखा यह बतलाते हैं। ___ संसारी प्राणी के दर्शन के बाद ज्ञान और पश्चात् श्रद्धान होता है इस हिसाब से दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्व यह क्रम प्राप्त होता है। उसमें भी ज्ञान प्रधान है इसलिये ज्ञानको दर्शनसे पूर्वमें गिनाया जाता है । बस इसी क्रमको ध्यानमें लेकर कर्मोंका ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय इस क्रमसे पाठ रखा है। यह तो घातिकर्मों के पाठ का क्रम हुआ। अघाति कर्मों के पाठके क्रम पर विचार करने पर वह आयु, नाम और गोत्र इस प्रकारसे प्राप्त होता है, क्यों कि भव, उसमें अवस्थान और फिर ऊंच नीच भाव यह क्रम उसके बिना बन नहीं सकता। शेष दो कर्मो के रखने का क्रम पहले ही बतला आये हैं । इस पाठ क्रम से एक बात खासतौर से फलित होती है कि केवल वेदनीय का उदय मोहनीय के अभाव में सुख दुख का वेदन कराने में असमर्थ है। वेद
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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