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तत्त्वार्थसूत्र
[८.४. नीय का उदय तो अरिहन्त जिनके भी पाया जाता है पर वहाँ मोहनीय कर्म नहीं रहता इसलिये उनके रोगादि जन्य दुःख नहीं होता। यद्यपि स्थिति ऐसी है किन्तु इस विषय में जैनाचार्यों में मतभेद पाया जाता है। श्वेताम्बर जैनाचार्य इस मत से सहमत नहीं है। इसलिये इस विषय की चर्चा कर लेना इष्ट प्रतीत होता है।
वेदनीय के सम्बन्ध में तीन बातें तो सभी को इष्ट हैं-प्रथम तो यह कि कर्मों का पाठ क्रम दोनों परम्पराओं में एकसा है, दूसरी यह कि वेदनीय की उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है और तीसरी यह कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में एक मात्र सातावेदनीय का ही बन्ध होता है। ___ असातावेदनीय के बन्ध के कारणों का पहले निर्देश कर आये हैं। उनमें एक कारण दुःख भी है। यदि ऐसा मान लिया जाय कि अरिहन्त जिनको क्षुधादि जन्य बाधा होती. है तो उनके असातावेदनीय का बन्ध भी मानना पड़ेगा किन्तु उनके असातावेदीय का बन्ध दोनों परम्पराओं को इष्ट नहीं है इसलिये मालूम तो ऐसा ही पड़ता है कि उनके क्षुधादि जन्य बाधा नहीं होती।
शरीर आत्मा से भिन्न है यह अनुभव तो सम्यग्दृष्टि को हो होने लगता है। इसके आगे जीव जब स्वावलम्बन का अभ्यास करने लगता है तब वह क्रमशः पर पदार्थो के अवलम्बन से अपने को मुक्त करता जाता है। पाँचवें गुणस्थान में वह आंशिक स्वावलम्बन का अभ्यास करता है। छठे गुणस्थान में इस अभ्यास को वह और आगे बढ़ाता है। यहाँ शरीर को वह विश्राम भोजन आदि देता है पर इसके आगे सातवें आदि गुणस्थानों से इसके यह भी छूट जाता है। तेरहवाँ गुणस्थान तो ऐसा है जहाँ न तो छद्मस्थता रहती है और न ही राग द्वेष रहता है फिर भी वह बुद्धिपूर्वक शरीर को आहार पानी दे और उसके अवलम्बन के आश्रित अपने को माने यह बात