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स्वरूप
तत्त्वार्थसूत्र
[८. ४. जो आत्माकी बाह्य पदार्थों को जानने की शक्तिके आवरण करने में निमित्त है वह ज्ञानावरण कर्म है। जो आत्माकी स्वयंको साक्षा
त्कार करने की शक्ति के आवरण करने में निमित्त है मूल प्रकृतियों का
" वह दर्शनावरण कर्म है । जो बाह्य आलम्बन पूर्वक
सुख दुख के वेदन कराने में निमित्त है, वह वेदनीय कर्म है। जो आत्मा के मोह भाव के होने में अर्थात राग, द्वप और मिथ्यात्वभाव के होने में निमित्त है वह मोहनीय कर्म है। जो आत्मा के नर नारकादि पर्याय धारण करने में निमित्त है वह आयुकर्म है। जो जीव की गति जाति आदि और पुद्गल की शरीर आदि विविध अवस्थाओं के होने में निमित्त है वह नामक है। जो आत्मा के ऊँच और नीच भाव के होने में निमित्त है वह गोत्रकर्म है और जो आत्माके दानादि रूप भावोंके न होने में निमित्त है वह अन्तराय
. प्रकृति बन्धके ये आठों भेद घातिकर्म और अघातिकर्म इन दो भागों में बटे हुए हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घाति कर्म कहलाते हैं तथा वेदनीय, श्रायु, नाम और गोत्र इन चारको अघाति कर्म कहते हैं। • आत्मामें अनुजीवी और प्रतिजीवो ये दो प्रकारको शक्तियां पाई जाती हैं । जो शक्तियां आत्माके सिवा अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जाती मूलप्रकृतियोंके पाठ
... किन्तु जिनके सद्भावमें ही आत्माकी विशेषता जानी 1 जाती है वे अनुजीवीगुण हैं और जो शक्तियां
आत्माके सिवा अन्य द्रव्योंमें भी सम्भव हैं वे प्रतिजीवी गुण हैं । इन दोनों प्रकारकी शक्तियोंमें से जिनसे अनुजीवी शक्तियोंका घात होता है वे घातिकर्म कहलाते हैं और प्रतिजीवी शक्तियोंका घात करनेवाले कर्म अघाति कर्म कहलाते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मों में मुख्यता घातिकर्मोको है, क्यों कि वे आत्माके अनुजीवी