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________________ ८.४.] प्रकृतिबन्ध के मूल भेदोंका नामनिर्देश ३७३ है। इस प्रकार कर्मबन्ध के समय उसकी काल-मर्यादा का निश्चित होना ही स्थितिबन्ध है। अनुभव का अर्थ फलदान शक्ति है जो कर्मबन्ध के समय ही पड़ जाती है। इस शक्ति का पड़ जाना ही अनुभवबन्ध है और प्रदेश का अर्थ कर्मपरमाणुओं की गणना है। जो कम आत्मा से बन्ध को प्राप्त होते हैं वे नियत तो रहते ही हैं। एक काल में जितने कर्मपरमाणु बन्ध को प्राप्त होते हैं उनका वैसा होना ही प्रदेशबन्ध है। जितने भी कम हैं वे सब इन चार भागों में बटे हुए हैं। ऐसा एक भी कर्म नहीं है जिसमें ये चार विभाग सम्भव न हों यह इस सूत्र का तात्पर्य है ॥३॥ प्रकृतिबन्ध के मूल भेदोंका नामनिर्देश --- आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥ ४ ॥ पहला अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप है।। ___जिस आत्माकी जैसी योग्यता होती है तथा अन्तरंग और बहिरंग जैसे निमित्त मिलते हैं उनके अनुसार उसके नाना प्रकार के परिणाम हुआ करते हैं। सब संसारी आत्माओं के परिणामों का विचार करने पर वे असंख्यात लोक प्रमाण प्राप्त होते हैं जो निरन्तर बंधनेवाले कर्मों के स्वभाव निर्माण में कारण हो रहे हैं। यदि इन परिणामों के अनुसार बँधनेवाले कर्मों के स्वभावों का विभाग किया जाता है तो वह बहुत प्रकारका प्राप्त होता है, उस विभाग को संख्यामें भी बता सकना कठिन है तथापि वर्गीकरण द्वारा विविध स्वभाववाले उन सब कर्मोको आठ भागोंमें बांट दिया गया है और इससे प्रकृतिबन्धके मूल भेद आठ प्राप्त होते है जिनका नामोल्लेख सूत्र में किया ही है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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