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________________ ३७२ तत्त्वार्थसूत्र [८.२-३. हैं। उनका आत्मा से संश्लेष रूप सम्बन्ध को प्राप्त होना बन्ध है। यद्यपि बन्ध कर्म और आत्मा के एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध का नाम है तथापि यह सभी आत्माओं के नहीं पाया जाता है किन्तु जो आत्मा कषायवान् है वही कर्मो को ग्रहण कर उससे बंधता है। यदि लोहे का गोला गरम न हो तो पानो को ग्रहण नहीं करता, किन्तु गरम होने पर वह जैसे अपनी ओर पानी को खींचता है वैसे ही शुद्ध आत्मा कर्मों को ग्रहण करने में असमर्थ है किन्तु जब तक वह कषाय सहित रहता है तब तक प्रत्येक समय में बराबर कर्मों को ग्रहण करता रहता है और इस प्रकार कर्मों को ग्रहण करके उनसे संश्लेष को प्राप्त हो जाना ही बन्ध है । इस बन्ध के मुख्य हेतु योग और कषाय है यह बात प्रकट करने के लिये ही प्रस्तुत सूत्र में "सकषायत्वात्' और 'श्रादत्ते' ये दो पद दिये हैं ॥२॥ जब यह जीव कर्म को बाँधता है तब उसकी मुख्यतः चार अवस्थाएँ होती हैं । ये ही चार अवस्थाएँ बन्ध के चार भेद हैं जो प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश के नाम से पुकारे जाते हैं। यह बात केवल कर्म पर ही लागू नहीं है किन्तु आवरण करनेवाले किसी भी पदार्थ की ये चार अवस्थाएँ देखी जाती हैं। उदाहरणार्थ-लालटेन को वस्त्र से झकने पर उसमें प्रकाश को रोकने का स्वभाव, उसका काल, रोकनेवाली शक्ति का हीनाधिक भाव और उस वस्त्र का परिमाण ये चार अवस्थाएँ एक साथ प्रकट होती हैं। इसी प्रकार कर्म की चार अवस्थाएँ समझनी चाहिये, इसी से यहाँ पर कर्म के चार भेद किये गये हैं। __ प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। कर्म का बन्ध होते ही उसमें जो ज्ञान और दर्शन को रोकने, सुख दुख देने आदि का स्वभाव पड़ता है वह प्रकृतिबन्ध है । स्थिति का अर्थ काल मर्यादा है। प्रत्येक कर्म का बन्ध होते ही उसका सम्बन्ध आत्मा से कब तक रहेगा यह निश्चित हो जाता
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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