SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८. १.] बन्ध के हेतुओं का निर्देश ३६९ वाली प्रकृतियाँ भी कमती कमती होती जाती हैं। यहाँ मिथ्यादर्शन आदि को बन्ध का हेतु बतलाने का यही अभिप्राय है। ऊपर जितना भी कथन किया है उस सबका सार यह है कि कम के एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से किस प्रकृति का किस हेतु के रहने पर बन्ध होता है यह बतलाने के लिये मिथ्यादर्शन आदि को बन्ध का हेतु बतलाया गया है और उन एकसौ अड़तालीस प्रकृतियों में से प्रत्येक कर्म का प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग से तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कपाय से होता है यह बतलाने के लिये कपाय और योग को बन्ध का हेतु गिनाया गया है। इस प्रकार इन दोनों परम्पराओं के कथन में दृष्टिभेद ही है मान्यताभेद नहीं । अब आगे मिथ्यादर्शन आदि बन्धहेतुओं के स्वरूप पर प्रकाश डालते है-- आत्मा का दर्शन नाम का एक गुण है जो मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यादर्शन रूप होता है और जिसका निमित्त कारण मिथ्यादर्शन का - उदय है। इसके होने पर वस्तु का यथार्थ दर्शन __अर्थात् श्रद्धान तो होता ही नहीं, यदि होता भी है तो अयथार्थ होता है। इसके नैसर्गिक और परोपदेश पूर्वक ये दो भेद हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन बिना उपदेश के केवल मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से होता है। इसका होना चारों गतियों के जीवों के सम्भव है। तथा दूसरा बाह्य में उपदेश के निमित्त से होता है। यह अधिकतर मनुष्य जाति में सम्भव है। वर्तमान में जितने पन्थ प्रचलित हैं वे सब इसके परिणाम हैं। इसके दूसरे प्रकार से पाँच भेद किये गये हैंएकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान । जिससे छह काय के जीवों की हिंसा से और छह इन्द्रियों के विषय से निवृत्ति नहीं होती वह अविरति है। जिस जीव के अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानवरण कषाय का उदय विद्यमान है उसके उपयुक्त सभी प्रकार की अविरति पाई जाती है। किन्तु जिसके उक्त कपायों का
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy