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प्रमाद
३७० तत्त्वार्थसूत्र
[८. १. उदय न होकर प्रत्याख्यानावरण आदि कषायों का उदय है उसके त्रस काय विषयक अविरति का अभाव होकर शेष ग्यारह प्रकार की अविरति पाई जाती है।
प्रमाद का अर्थ है अपने कर्तव्य में अनादर भाव । यह अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि बारह कषायों के उदय में तो होता ही है किन्तु
संज्वलन कषाय के तीव्र उदय में भी होता है। इसके ५ निमित्त भेद से अनेक भेद हो जाते हैं। यथा पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय, निद्रा और प्रणय ये प्रमुख रूप से प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं। शास्त्रों में अधिकतर इसका वर्णन संज्वलन कषाय के तीव्र उदय की अपेक्षा से ही किया गया मिलता है। वहाँ अविरति और कषाय से इसका पार्थक्य दिखलाने के लिये ऐसा किया गया है इससे भली प्रकार से यह जाना जा सकता है कि केवल प्रमाद निमित्तक किन प्रकृतियों का बन्ध होता है।
चारित्र रूप आत्मपरिणामों में अनिमलता का नाम ही कषाय है। यह मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर न्यूनाधिक प्रमाण में दसवें गुणस्थान
तक पाई जाती है। अगले गुणस्थानों में या तो __ कषाय
का चारित्रमोहनीय का उदय नहीं रहता या चारित्रमोहनीय कर्म ही नहीं रहता इसलिये आगे यह नहीं पाई जाती। गुणस्थान चर्चा में और बन्ध प्रकरण में संज्वलन कषाय के मन्द उदय को कषाय बतलाया है सो वहाँ प्रमाद से पार्थक्य दिखलाने के लिये ऐसा किया गया है। इससे केवल कषाय निमित्तक बँधनेवाली प्रकृतियों का पता चल जाता है।
योग का अर्थ है आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द । यह मन, वचन और काय के निमित्त से होता है इसलिये इसके मनोयोग, वचनयोग और योग
काययोग ये तीन भेद हो जाते हैं । यह मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक