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________________ ३६८ तत्त्वार्थसूत्र [८. १. दो परम्पराएँ शेष रहीं एक तो कषाय और योग को बन्ध के हेतु बतलानेवाली और दूसरी मिथ्यादर्शन, कषाय और योग को बन्ध के हेतु बतलानेवाली। • अब देखना यह है कि क्या सचमुच में ये दोनों परम्पराएँ मान्यताभेद से सम्बन्ध रखती हैं या मान्यताभेद न होकर दृष्टिभेद से वर्णन करने की विविध शैलियाँमात्र हैं ? ___जब हम इस प्रश्न पर तात्त्विक दृष्टि से विचार करते हैं तो ये दोनों परम्पराएँ मान्यताभेद पर आधारित न होकर दृष्टिभेद से वर्णन करने की शैलीमात्र प्राप्त होती हैं। इनमें से कषाय और योग को बन्धहेतु, बतलानेवाली परम्परा प्रत्येक कर्म का संयोग और संश्लेप किन कारणों से होता है इस बात का निर्देश करती है और दूसरी परम्परा गुणस्थान क्रम से कर्मप्रकृतियों के बन्धहेतुओं का विचार करती है। बन्ध के समय प्रत्येक कर्म चार भागों में बट जाता है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का हेतु योग है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का हेतु कषाय है। इस कथन से समूचे. कर्मबन्ध के कारण कपाय और योग प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि इन दोनों कारणों के सद्भाव में ही कर्म का बन्ध होता है अभाव में नहीं। इस प्रकार प्रत्येक कर्म प्रकृति आदि के भेद से किन कारणों से बँधता. है इसका विचार करते हुए: शास्त्र में योग और कषाय को कर्मबन्ध का कारण बतलाया है तथा मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में उत्तरोत्तर न्यून न्यून बँधनेवाली कर्मप्रकृतियों के हेतुओं का विचार करते हुए मिथ्यादर्शन आदि बन्धहेतुओं का उल्लेख किया है। मिथ्यात्व गुणस्थान में ये मिथ्यादर्शन आदि सभी बन्ध के. हेतु पाये जाते हैं, इसलिये वहाँ सबसे अधिक प्रकृतियों का बन्ध होता है. और आगे आगे के गुणस्थानों में ये वन्धहेतु कमती कमती होते जाते हैं, 'इसलिये उन उन गुणस्थानों में बँधने
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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