________________
। ७. ३८-३६.] दान का स्वरूप और उसकी विशेषता ३६५
यद्यपि वर्तमान काल में उसकी तीव्र भर्त्सना की जाती है । अधिकतर लोगों का यह विश्वास होता जा रहा है कि दान एक प्रकार की लाँच है। हम कहते हैं कि यह दोष यद्यपि वर्तमान में पैदा हो गया है
और इस दोष को दूर करने के लिये जो भी प्रयत्न किये जायगे वे उपादेय हैं, पर दान के मूल में यह हेतु नहीं था इतना निश्चित है। ___ दान के मुख्य भेद चार किये जाते हैं-आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान । दान के और जितने भी प्रकार हैं उन सबका अन्तर्भाव इनमें हो जाता है। आर्थिक व्यवस्था कुछ भी क्यों न हो पर जीवन में दान का स्थान सदा ही बना रहेगा इतना स्पष्ट है। । यद्यपि सभी दान एक हैं तथापि उनके फल में अन्तर देखा जाता है। जिसका मुख्य कारण विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता है। इनकी न्यूनाधिकता से दान के महत्त्व में न्यूनाधिकता आती है यह इस कथन का तात्पर्य है। अब इन चारों की विशेषता का खुलासा करते हैं
पात्र के अनुसार प्रतिग्रह, उच्चस्थान, अंघ्रिक्षालन, अर्चा, आनति, विधि की विशेषता मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और अन्नशुद्धि इनके
" क्रम को भली प्रकार से जानकर आहार देना विधि की विशेषता है। इसमें देश-काल और लेनेवाले की शक्ति व प्रकृति आदि का ख्याल रखना अत्यन्त आवश्यक है। दी जानेवाली वस्तु कैसी है क्या है इत्यादि बातों का विचार द्रव्य
. की विशेषता में किया जाता है। आहार आदि देते द्रव्य की विशेपता
" समय इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जिसे आहार दिया जा रहा है उसका वह कहाँ तक उपकारक होगा। संयत और गृहत्यागी को गरिष्ठ और मादक आहार तो देना ही नहीं चाहिये । आहार ऐसा हो जिससे उसे अपने गुणों के विकाश करने में सहायता मिले।