________________
तत्त्वार्थसूत्र
[७. ३८-३६. प्रशस्त मार्ग तो यही है कि अन्य अन्य का अपने को स्वामी या कर्ता न माने । कदाचित् मोह, अज्ञान या रागवश वह ऐसा मानता भी है तो उसे इन भावों का त्याग करने के लिये सदा उद्यत रहना चाहिये । जब कोई व्यक्ति अन्य वस्तु का त्याग करता है तो उसमें यही भाव छिपा रहता है। इसलिये दान यह स्वोपकार का प्रमुख साधन माना गया है। इससे त्याग करनेवाले की आन्तरिक विकार परिणति का मोचन होता है। दान का यही स्वारस्य है। प्रकृत में जो दान का विधान किया गया है वह भी इसी भाव को ध्यान में रखकर किया गया है। इससे पर वस्तु का त्याग होकर व्यक्तिगत जीवन को स्वतन्त्र
और निर्मल बनाने का अवसर मिलता है। समाजवाद और अध्यात्मवाद में मौलिक अन्तर यह है कि समाजवाद स्वेच्छा से त्याग की बात नहीं कहता जब कि अध्यात्मवाद स्वेच्छा से त्याग की ओर प्रवृत्त होता है। यदि विश्व को विपुल साधन उपलब्ध हो जाँय तो समाजवाद समविभागीकरण के आधार से उन्हें स्वीकार किये बिना नहीं रहेगा। तब वह मानेगा कि प्रत्येक व्यक्ति को इनको स्वीकार करने का अधिकार है। किन्तु अध्यात्मवाद ऐसे अधिकार को स्वीकर ही नहीं करता। पर वस्तु के स्वीकार को वह जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी मानता है। व्यक्तिस्वातन्त्र्य की भावना और उसे कार्यान्वित करने की प्रवृत्ति यह अध्यात्मवाद की रीढ है। इसमें जीवन में आई हुई कमजोरी पर प्रमुखता से ध्यान दिया जाता है। दान उस कमजोरी को दूर करने का प्रमुख साधन है। इस द्वारा गृहस्थ त्याग का अभ्यास करता है और धीरे-धीरे जीवन में त्याग को प्रतिष्ठित करता जाता है। इसलिये जीवन में दान का बहुत बड़ा स्थान है। इससे सब प्रकार की सत्य प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। साधु की निर्विघ्नरीति से आत्म साधना में भी यह सहायक है। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। इसमें उत्साहित होना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है।