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________________ ___७. ३८-३९. ] दान का स्वरूप और उसकी विशेषता ३६३ चलना चाहिये और दूसरों को भी इसी मार्ग से ले जाने का प्रयत्न करना चाहिये । जीवन में पूर्ण स्वावलम्बनी वृत्ति का आ जाना ही मोक्ष है और इसे प्राप्त करने का मार्ग ही मोक्ष मागे है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि यद्यपि सब मनुष्यों के जीवन में इस वृत्ति का जागृत होना कठिन है इसलिये जो मनुष्य पूर्ण रूप से इस वृत्ति को अपने जीवन में नहीं उतार सकते हैं उन्हें इतना अवश्य करना चाहिये कि वे एक तो आवश्यकता से अधिक का संचय न करें। दूसरे अपनी आवश्यकता के अनुसार संचित किये गये द्रव्य में से भी वे कुछ का त्याग करें और इस तरह अपनी आवश्यकताओं को कम करते हुए उत्तरोत्तर जीवन में स्वावलम्बन को उतारने का अभ्यास करें। ग्रहण कर उसका त्याग करना इसकी अपेक्षा ग्रहण ही नहीं करना सर्वोत्तम माना गया है। अपरिग्रहवाद का भाव भी यही है। किन्तु वर्तमान में मनुष्य के जीवन में से इस वृत्ति का सर्वथा लोप हो गया है। दान को सामाजिक प्रतिष्ठा का स्थान मिल जाने से अब तो अधिकतर लोगों का भाव ऐसा भी देखा जाता है कि वे किसी भी मार्ग से धन संचय करते हैं और फिर उदारता का स्वांग करने के लिये उसमें से कुछ अंश उन कार्यों के लिये जिनसे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है दे देते हैं । यह अध्यात्मवाद को जीवित रखने का सही मार्ग नहीं है। सामाजिक न्याय को तो समाजवादी या कम्युनिष्ट भी स्वीकार करते हैं। चालू जीवन सबका सुखी बना रहे यह भला कौन नहीं चाहता? किन्तु अध्यात्मवाद इतना उथला नहीं है। उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। वह प्राणीमात्र का कल्याण किसी की कृपा के आधार पर नहीं स्वीकार करता और न ही वह ऐसा मानता है कि अन्य अन्य का किसी भी प्रकार भला बुरा कर सकता है। वह तो भीतर से जड़ चेतन सबकी स्वतन्त्रता स्वीकार करता है और इसलिये इस स्वतन्त्रता की जिन जिन मार्गों से रक्षा होती है उन्हें वह ग्राह्य मानता है। इसकी रक्षा का
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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