SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ तत्त्वार्थसूत्र [७.३८-३६. रहने दी जायगी। भविष्य में क्या होगा यह तो विश्वासपूर्वक कह सकना कठिन है पर इतना निश्चित है कि मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर अधिकतर लोग पुरानी आर्थिक व्यवस्था से ऊब गये हैं वे इसमें परिवर्तन चाहते हैं। ___ देखना यह है कि आखिरकार ऐसा क्यों हो रहा है। बहुत कुछ विचार के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह सब मनुष्यों की वैयक्तिक कमजोरी का ही फल है। जहाँ सहयोग प्रणाली के आधार पर प्रत्येक मनुष्य को व्यक्तिगत आर्थिक स्वतन्त्रता मिली वहाँ वह अपने लोभ का संवरण नहीं कर सका। उसे इसका भान न रहा कि जीवन में अर्थ की आवश्यकता जिस प्रकार मुझे है उसी प्रकार दूसरे को भी है। मुझे उतना ही संचय करने का अधिकार है जितने की कि मुझे आवश्यकता है। इससे अधिक का संचय करना पाप है। जीवन में इस वृत्ति के जीवित न रहने के कारण ही आर्थिक दृष्टि से समाजसादी मनोवृत्ति को जन्म मिला है और अब तो यह वृत्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में घर करती जा रही है। जो साधनहीन हैं वे तो पुरानी आर्थिक व्यवस्था में आये हुये दोष को समझ ही रहे हैं किन्तु जो साधन सम्पन्न हैं वे भी उसके इस दोष को समझ रहे हैं। फिर भी वे अपनी नियत में संशोधन करने के लिये तैयार नहीं हैं यही आश्चर्य की बात है। आगे जो होनेवाला होगा सो तो होगा ही। उसे कोई रोक नहीं सकता पर तत्काल केवल इस बात का विचार करना है कि मनुष्य का जीवन केवल अर्थ प्रधान बन जाने पर अध्यात्म जीवन की रक्षा कैसे की जा सकेगी ? पूर्वकालीन ऋषियों ने अपने अनुभव के आधार पर यह उपदेश दिया था कि___ जीवन में यह मान कर चलना चाहिये कि अपने आत्मा के सिवा अन्य सब पदार्थ पर हैं। इसलिये सबसे मोह छोड़कर जिससे जीवन में पूर्ण स्वावलम्बन की वृत्ति जागृत हो ऐसे मार्ग पर स्वयं
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy