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________________ ७. ३८-३६.] दान का स्वरूप और उसकी विशेषता मर्यादा को जानते हों। न्याय का अर्थ केवल कानून का उल्लंघन नहीं करना या तत्काल चालू रूढिको पालना नहीं है। उसका वास्तविक अर्थ है आवश्यकता से अधिक का संचय नहीं करना। जो लौकिक सभी प्रकार की मर्यादाओं का यथावत् पालन करता हुआ भी आव. श्यकता से अधिक का संचय करता है उसकी वृत्ति न्याय नहीं कही जा सकती है। धन कुछ स्वयं आकर नहीं चिपकता जिससे उसे पुण्य का फल कहा जाय। वह तो विविध मार्गों से प्राप्त किया जाता है, अतः धन के संचय करने में लोभ की अधिकता ही मुख्य कारण है और लोभ जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है, इसलिये जो संचित धन का त्याग करता है वह वास्तव में लोभ का ही त्याग करता है। यही कारण है कि दान को परोपकार के समान स्वोपकार का मुख्य साधन माना है। वर्तमान समय में जो देते हैं वे ऐसा मानते हैं कि हमने बहुत बड़ा काम किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह काम बहुत ही महत्त्व का है। पर इसका महत्त्व तब है जब देनेवाले के मन में अहङ्कार न हो । अहंबुद्धि के हो जाने पर देने पर भी दान का फल नहीं मिलता। तथ्य यह है कि देनेवाला कुछ देता ही नहीं, क्योंकि जो पर है उसमें वस्तुतः वह दान व्यवहार करने का अधिकारी ही नहीं। और जो स्व है उसका वह कभी भी त्याग नहीं कर सकता। संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो अपना कुछ छोड़ता हो और दूसरे का कुछ लेता हो । फिर भो दानादान व्यवहार तो होता ही है सो इसका कारण केवल निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। यह हो सकता है कि यह सम्बन्ध जिस रूप में आज है कल न भी रहे। ___ यह तो हम प्रत्यक्ष से ही देखते हैं कि बहुत से देशों ने वर्तमान कालीन आर्थिक व्यवस्था का सर्वथा ध्वंस कर दिया है और वे इस बात पर तुले हुए हैं कि समूचे विश्व में यह आर्थिक व्यवस्था नहीं
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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