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________________ ३६० तत्त्वार्थसूत्र [७. ३८-३९. प्राणी विरले हैं जो इनमें मोह को संसार का कारण जानकर इनका त्याग करने की इच्छा से ऐसा उद्यम करते हैं जिससे इनका उपयोग मोक्षमार्ग के निमित्त रूप से किया जा सके । सच पूछा जाय तो त्यागधर्म जीवन के समग्र सद्गुणों का मूल है। गृहस्थ अपने जीवन में जितने ही अच्छे ढंग से इसका उपयोग करता है मानवमात्र में सदाचार की उतनी ही वृद्धि होती है। यद्यपि इससे आत्मीक गुणों का विकाश तो होता ही है पर धर्म मर्यादा को बनाये रखना भी इसका फल है। गृहस्थ न्याय पूर्वक अपनी आवश्यकतानुसार जो कुछ कमाता है उसमें से सद्गुणों की प्रवृत्ति चालू रखने के लिये कुछ हिस्सा खर्च करना दान है, इससे दान देनेवाले और दान लेनेवाले दोनों का हित साधन होता है। दान देनेवाले का हितसाधन तो यह है कि इससे उसकी लोभवृत्ति कम होती है और आत्मा त्याग की ओर झुकता है तथा दान लेनेवाले का हितसाधन यह है कि इससे जीवन यात्रा में मदद मिलती है जिससे वह भले प्रकार आत्म कल्याण कर सकता है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा हितसाधन मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति को चालू रखना है। यह वर्तमान व्यवस्था के रहते हुए दान के बिना सम्भव नहीं है इसलिये जीवन में दान का बड़ा महत्त्व है। ___अनुग्रह शब्द उपकारवाची है और स्व शब्द धनवाची हैं। शरीर के रहते हुए उसके भरण पोषण के लिये बाह्य पदार्थों का सहयोग लेना आवश्यक है। बिना आहार पानी के शरीर चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकता इसलिये जो स्वावलम्बन पूर्वक जीवन यापन करने का निर्णय करते हैं, भोजन पान की आवश्यकता तो उनको भी पड़ती है। उसके बिना उनके शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता। इसी से जीवन में दान का सर्वाधिक महत्त्व माना गया है। दान केवल पर की उपकार बुद्धि से नहीं दिया जाता है। इसमें स्वोपकार का भाव मुख्य रहता है। ऐसे बहुत ही कम मनुष्य हैं जो न्याय की उचित
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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