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________________ ७. ३८-३९.] दान का स्वरूप और उसकी विशेषता . ३५६ पूजा संस्कार और वैयावृत्य अदि देखकर जीने की चाह करना जीविताशंसा है। पूजा सत्कार और सेवा शुश्रूषा होती हुई न देखकर र जल्दी से मरने की चाह करना मरणाशंसा है। ये हमारे बाल्यकाल के मित्र हैं, विपत् पड़ने पर इन्होंने अतीचार ___ हमारी बड़ी सेवा की थी इस प्रकार पुनः पुनः मित्रों का स्मरण करके उनके प्रति अनुराग रखना मित्रानुराग है। पहले भोगे गये सुखों का पुनः पुनः स्मरण कर उन्हें ताजा करना सुखानुबन्ध है। तपश्चर्या का फल भोग के रूप में चाहना निदान है। ये सल्लेखना व्रत के पाँच प्रतीचार हैं। ये ऊपर अहिंसाणुव्रत आदि व्रतों के जो भी अतीचार बतलाये हैं वे यथासम्भव अज्ञान, असावधानी और मोहवश यदि होते हैं तो अतीचार हैं और यदि जान बूझकर किये जाते हैं तो अनाचार हैं। तात्पर्य यह है कि अतीचार को अतीचार समझकर करना अनाचार है और कारणवश उनका हो जाना अतीचार है ॥ २४-३७ ॥ दान का स्वरूप और उसकी विशेषताअनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८ ॥ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥ अनुग्रह के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से उसकी अर्थात् दान की विशेषता है। स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, घर, धन, दौलत आदि सब मुझसे भिन्न हैं, तत्त्वतः मैं इनका स्वामो भी नहीं हूँ। यह सब नदी नाव का संयोग है। न तो कोई साथ में आया है और न कोई साथ में जायगा ये या इसी प्रकार के विचार सुनने को तो बहुत मिलते हैं । इसी प्रकार अपने पुत्रादिक के लिये सर्वस्व का त्याग करते हुए भी प्राणी देखे जाते हैं पर ऐसे
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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