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________________ ७. २४--३७.] व्रत और शील के अतीचार ३५५ चाकर जायदाद में परिगणित नहीं किये जाते, अतः वर्तमान काल के अनुसार दासोदासप्रमाणातिक्रम का अर्थ यह होता है कि जिसके यहाँ जितने नौकर चाकर हों उनकी संख्या बढ़ाने की भावना रखना और उनके साथ मानवोचित व्यवहार न कर उन्हें अपनी जायदाद समझना दासीदासप्रमाणातिक्रम है। वस्त्रों और वर्तनों आदि का प्रमाण निश्चित करके मिला कर उसके प्रमाण का उल्लंघन करना कुप्यप्रमाणातिक्रम है। ये परिग्रहपरिमाणवत के पाँच अतीचार हैं। ___ ऊपर कितना जायँगे इसका प्रमाण निश्चित करने के बाद पर्वत पर चढ़कर या विमान आदि की सवारी द्वारा लोभादिवश उस प्रमाण का दिग्विरति व्रत के र उल्लंघन करना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है। इसी प्रकार नीचे, ल वावड़ी, कूप और खदान आदि में जाने और तिरछे अतीचार बिल आदि में जाने का प्रमाण निश्चित करके लोभा. दिवश उसका उल्लंघन करना क्रमशः अधोव्यतिक्रम और तिर्यग्व्यतिक्रम है। चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में जाने का अमुक प्रमाण निश्चित किया परन्तु किसी एक दिशा में मर्यादा के बाहर जाने का प्रसंग उपस्थित होने पर उस दिशा में मर्यादा के बाहर चला जाना और दूसरी दिशा में उतना ही कम जाने का प्रमाण रखना क्षेत्रवृद्धि है। तथा निश्चित की हुई क्षेत्र की मर्यादा को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है। ये पाँच दिग्विरति व्रत के अतीचार हैं।। स्वयं मर्यादा के भीतर रहकर दूसरे व्यक्ति से 'अमुक वस्तु ले आओ' यह कह कर मर्यादा के बाहर से किसी वस्तु को बुलाना आन र यन है। मर्यादा के बाहर न स्वयं जाना और न देश दूसरे को भेजना किन्तु नौकर आदि को आज्ञा देकर - वहाँ बैठे बिठाए काम करा लेना प्रेष्यप्रयोग है। यदि मर्यादा के बाहर स्थित किसी व्यक्ति से काम लेना हो तो खाँसना, ताली पीटना और चुटकी बजाना आदि शब्दानुपात है। इसी प्रकार अतीचार
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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